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३०२]
मूलाचारे उवसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरियमहीलणं वयणं ।
एसो वाइयविणओ जहारिहं होदि कादश्वो ॥३७८॥
उपशान्तवचनं क्रोधमानादिरहितं । अगृहस्थवचनं गहस्थानां मकारवकारादि यद्वचनं तेन रहितं बन्धनबासनताडनादिवचनरहितं । अकिरियं असिमसिकृष्यादिक्रिया (दि) रहितं अथवा सक्रियमिति पाठः। सक्रिय क्रियायुक्तमन्यच्चिन्तान्यदोषयोरिति न वाच्यं, तदुच्यते यन्निष्पाद्यते। अहीलं-अपरिभववचनं। इत्येवमादिवचनं यत्र स एष वाचिको विनयो यथायोग्यं भवति कर्तव्य इति ॥३७॥
मानसिकविनयस्वरूपमाह
पापविसोत्तिपरिणामवज्जणं पियहिदे य परिणामो।
णादव्वो संखेवेणेसो माणसिओ विणो॥३७६॥
पापविश्रुतिपरिणामवर्जनं पापं हिंसादिकं विश्रुतिः सम्यग्विराधना तयोः परिणामस्तस्य वर्जनं परिहारः । प्रिये धर्मोपकारे हिते च सम्यग्ज्ञानादिके च परिणामो ज्ञातव्यः । संक्षेपेण स एष मानसिकश्चितोद्भवो विनय इति ॥३७६॥
इय एसो पच्चक्खो विणो पारोक्खिओवि जं गुरुणो। विरहम्मिवि वट्टिज्जदि प्राणाणिद्देसचरियाए॥३०॥
गाथार्थ-कषायरहित वचन, गृहस्थी सम्बन्ध से रहित वचन, क्रिया रहित और अवहेलना रहित वचन बोलना-यह वाचिक विनय है जिसे यथायोग्य करना चाहिए ॥३७८॥
प्राचारवृत्ति-क्रोध, मान, आदि से रहित वचन उपशान्त वचन हैं । गृहस्थों के जो मकार-बकार आदि रूप वचन हैं उनसे रहित वचन, तथा बन्धन, त्रासन, ताडन आदि से रहित वचन अगृहस्थ वचन हैं। असि, मषि, कृषि आदि क्रियाओं से रहित वचन अक्रियवचन हैं। अथवा 'सक्रियं' ऐसा भी पाठ है जिसका अर्थ यह है कि क्रियायुक्त वचन बोलना किन्तु अन्य की चिन्ता और अन्य के दोष रूप वचन नहीं बोलना चाहिए। जैसा करना वैसा ही बोलना चाहिए। किसी का तिरस्कार करने वाले वचन नहीं बोलना अहीलन वचन हैं। और भी ऐसे ही वचन जहाँ होते हैं वह सब वाचिक विनय है जो कि यथायोग्य करना चाहिए।
मानसिक विनय का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-पापविश्रुत के परिणाम का त्याग करना, और प्रिय तथा हित में परिणाम करना संक्षेप से यह मानसिक विनय है ॥३७६॥
आचारवृत्ति-हिंसादि को पाप कहते हैं और सम्यक्त्व की विराधना को विश्रुति कहते हैं। इन पाप और विराधना विषयक परिणामों का त्याग करना। धर्म और उपकार को प्रिय कहते हैं तथा सम्यग्ज्ञानादि के लिए हित संज्ञा है । इन प्रिय और हित में परिणाम को लगाना। संक्षेप से यह चित्त से उत्पन्न होनेवाला मानसिक विनय कहलाता है।
गाथार्थ-इस प्रकार यह प्रत्यक्ष विनय है। तथा जो गुरु के न होने पर भी उनकी आज्ञा, निर्देश और चर्या में रहता है उसके परोक्ष सम्बन्धी विनय होता है ॥३८०॥
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