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[मूलाचारे गुणा भवन्तीति । विनयस्य कर्ता कीतिं लभते । तथा मैत्री लभते । तथात्मनो मानं निरस्यति । गुरुजनेभ्यो बहमानं लभत। तीर्थकराणामाज्ञां च पालयति । गुणानुरागं च करोतीति ॥३८॥
वैयावृत्लस्वरूपं निरूपयन्नाह
पाइरियादिसु पंचसु सबालवुड्ढाउलेसु गच्छेसु ।
वेज्जायच्च वृत्तं कादव्वं सव्वसत्तीए॥३८६॥
आचार्योपाध्यायस्थविरप्रवर्तकगणधरेषु पंचसु । बाला नवकप्रव्रजिताः। वृद्धा वयोवृद्धास्तपोवृद्धा गुणवृद्धास्तैराकुलो गच्छस्तथैव बालवृद्धाकुले गच्छे सप्तपुरुषसन्ताने । वैयावृत्यमुक्तं यथोक्तं कर्तव्यं सर्वशत्क्या सर्वसामर्थेन उपकरणाहारभैषजपुस्तकादिभिरुपग्रहः कर्तव्य इति ।।३८६।।
पुनरपि विशेषार्थं श्लोकेनाह
गुणाधिए उवज्झाए तवस्सि सिस्से य दुव्वले।
साहुगण कुले संघे समणुण्णे य चापदि ॥३६०॥ गुणैरधिको गुणाधिकस्तस्मिन् गुणाधिके । उपाध्याये श्रुतगुरौ । तपस्विनि कायक्लेशपरे । शिक्षके
के गुण हैं । तात्पर्य यह है कि विनय करने वाला मुनि कीर्ति को प्राप्त होता है, सबसे मैत्री भाव को प्राप्त हो जाता है, अपने मान का अभाव करता है, गुरुजनों से बहुमान पाता है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन करता है और गुणों में अनुराग करता है।
अब वैयावृत्य का स्वरूप निरूपित करते हैं
गाथार्थ-आचार्य आदिपाँचों में, बाल-वृद्ध से सहित गच्छ में वैयावृत्य को कहा गया है सो सर्वशक्ति से करनी चाहिए ॥३८६॥
आचारवृत्ति—आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक और गणधर ये पाँच हैं। नवदीक्षित को बाल कहते हैं । वृद्ध से वयोवृद्ध, तपोवृद्ध और गुणों से वृद्ध लिये गये हैं । सात पुरुष की परम्परा को अर्थात् सात पीढ़ी को गच्छ कहते हैं । इन आचार्य आदि पाँच प्रकार के साधुओं की तथा बाल, वृद्ध से व्याप्त ऐसे संघ की आगम में कथित प्रकार से सर्वशक्ति से वैयावृत्य करना चाहिए । अर्थात् अपनी सर्वसामर्थ्य से उपकरण, आहार, औषधि, पुस्तक आदि से इनका उपकार करना चाहिए।
भावार्थ-तप और त्याग में आचार्यों ने शक्ति के अनुसार करना कहा है किन्तु वैयावृत्ति में सर्वशक्ति से करने का विधान है। इससे वैयावृत्ति के विशेष महत्त्व को सूचित किया गया है।
पुनरपि विशेष अर्थ के लिए आगे के श्लोक (गाथा) द्वारा कहते हैं----
गाथार्थ-गुणों से अधिक, उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, दुर्बल, साधुगण, कुल, संघ और मनोज्ञतासहित मुनियों पर आपत्ति के प्रसंग में वैयावृत्ति करना चाहिए ॥३६०॥
__ आचारवृत्ति-गुणाधिक-अपनी अपेक्षा जो गुणों में बड़े हैं, उपाध्याय-श्रुतगुरु, तपस्वी कायक्लेश में तत्पर, शिक्षक-शास्त्र के शिक्षण में तत्पर, दुर्बल-दुःशील अर्थात् दुष्टपरिणाम
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