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के ते षट्प्रकारा इत्याशंकायामाह -
पायच्छित्तं विषयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं । भाणं च विउस्सग्गो अब्भंतरओ तवो एसो ॥ ३६० ॥
प्रायश्चित्तं - पूर्वापराधशोधनं । विनयअनुद्धत वृत्तिः । वैयावृत्यं स्वशक्त्योपकारः । तथैव स्वाध्यायः सिद्धान्ताद्यध्ययनं । ध्यानं चैकाग्रचितानि रोधः ॥ व्युत्सर्गः । अभ्यन्तरतप एतदिति ॥ ३६० ॥
प्रायश्चित्तस्वरूपं निरूपयन्नाह
पायच्छित ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुव्वकयपावं । पायच्छित्तं पत्तोत्ति तेण वृत्त दसविहं तु ॥ ३६१ ॥
प्रायश्चित्तमपराधं प्राप्तः सन् येन तपसा पूर्वकृतात्पापात् विशुद्धयते हु— स्फुटं पूर्वं व्रतैः सम्पूर्णो भवति तत्तपस्तेन कारणेन दशप्रकारं प्रायश्चित्तमिति ॥ ३६१॥
के ते दशप्रकारा इत्याशंकायामाह -
[मूलाचारे
श्रालोयणपडिकमणं उभयविवेगो तहा विउस्सग्गो । तव छेदो मूलं वि परिहारों चेव सद्दहणा ॥ ३६२ ॥
अभ्यन्तर तप के वे छह प्रकार कौन से हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैंगाथार्थ - प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग-- ये अभ्यन्तर तप हैं ॥३६०॥
श्राचारवृत्ति-पूर्व के किये हुए अपराधों का शोधन करना प्रायश्चित है । उद्धतपनरहित वृत्ति का होना अर्थात् नम्र वृत्ति का होना विनय है । अपनी शक्ति के अनुसार उपकार करना वैयावृत्य है । सिद्धांत आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय है । एक विषय पर चिन्ता का निरोध करना ध्यान है और उपधि का त्याग करना व्युत्सर्ग है । ये छह अभ्यन्तर तप हैं ।
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अब प्रायश्चित्त का स्वरूप निरूपित करते हैं
गाथार्थ - अपराध को प्राप्त हुआ जीव जिसके द्वारा पूर्वकृत पाप से विशुद्ध हो जाता है वह प्रायश्चित्त तप है । इस कारण से वह प्रायश्चित्त दश प्रकार का कहा गया है ।।३६१॥
आचारवृत्ति- - अपराध को प्राप्त हुआ जीव जिस तप के द्वारा अपने पूर्वसंचित पापों विशुद्ध हो जाता है वह प्रायश्चित्त है । जिससे स्पष्टतया पूर्व के व्रतों से परिपूर्ण हो जाता है वह तप भी प्रायश्चित्त कहलाता है । वह प्रायश्चित्त दश प्रकार का है ।
वे दश प्रकार कौन से हैं ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ - आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये दश भेद हैं ॥३६२॥
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