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पंचाचाराधिकारः]
तिबंधो-गोमहिष्यादयः । मानुष्य:-स्त्रियो वेश्याः स्वेच्छाचारिण्यादयः । सधिकारियो—देव्यो भवनवानन्यन्तरादियोषितः । गेहिनो गृहस्थाः। एतैः संसक्तान्–सहितान्, निलयानावसान् वर्जयन्ति–परिहरन्त्यप्रमत्ता यत्नपराः सन्तः शयनासनस्थानेषु कर्तव्येषु एवमनुतिष्ठतो विविक्तशयनासनं नाम तप इति ॥३५७॥
बाह्य तप उपसंहरन्नाह
सो णाम बाहिरतवो जेण मणो बुक्कडं ण उट्ठदि ।
जेण य सखा जायदि जेण य जोगा ण हीयंते॥३५८।।
तन्नाम बाह्यं तपो येन मनोदुष्कृत-चित्तसंक्लेशो नोत्तिष्ठति नोत्पद्यते। येन च श्रद्धा शोभनानुरागो जायत उत्पद्यते येन च योगा मूलगुणा न हीयन्ते॥३५८॥
एसो दुबाहिरतवो बाहिरजणपायडो परम घोरो।
अग्भंतरजणणादं बोच्छं प्रभंतरं वि तवं ॥३५॥
तद्वाह्य तपःषविध बाह्यजनानां मिथ्यादृष्टिजनानामपि प्रकटं प्रख्यातं परमघोरं सुष्ठ दुष्करं प्रतिपादितं । अभ्यन्तरजनज्ञातं आगमप्रविष्टजनतिं. ये कथयिष्याम्यभ्यन्तरमपि षडविधं तपः॥३१
प्राचारवृत्ति-अप्रमत्त अर्थात् यत्न में तत्पर होते हुए सावधान मुनि सोना, बैठना और ठहरना इन प्रसंगों में अर्थात् अपने ठहरने के प्रसंग में-जहाँ गाय, भैंस आदि तिर्यंच हैं; वेश्या, स्वेच्छाचारिणी आदि महिलायें हैं; भवनवासिनी, व्यंतरवासिनी आदि विकारी वेषभूषावाली देवियाँ हैं अथवा गृहस्थजन हैं । ऐसे इन लोगों से सहित गृहों को, वसतिकाओं को छोड़ देते हैं। इस तरह इन तिर्यंच आदि से रहित स्थानों में रहनेवाले मुनि के यह विविक्त शयनासन नाम का तप होता है।
अब बाह्य तपों का उपसंहार करते हुए कहते हैं
गाथार्थ-बाह्य तप वही है जिससे मन अशुभ को प्राप्त नहीं होता है, जिससे श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा जिससे योगहीन नहीं होते हैं । ॥३५८।।
माचारवृत्ति-बाह्य तप वही है कि जिससे मन में संक्लेश नहीं उत्पन्न होता है, जिससे श्रद्धा-शुभ अनुराग उत्पन्न होता है और जिससे योग अर्थात् मूलगुण हानि को प्राप्त नहीं होते हैं । अर्थात् बाह्य तप का अनुष्ठान वही अच्छा माना जाता है कि जिसके करने से मन में संक्लेश न उत्पन्न हो जावे या शुभ परिणामों का विधात न हो जावे अथवा मूलगुणों की हानि न हो जावे।
गाथार्थ-यह बाह्य तप बाह्य जैन मत से बहिर्भूत) जनों में प्रगट है, परम धोर है, सो कहा गया है। अब मैं अभ्यन्तर-जैनदृष्टि लोगों में प्रसिद्ध ऐसे अभ्यन्तर तप को कहूंगा॥३५९।।
आचारवृत्ति-यह छह प्रकार के बाह्य तप का, जो मिथ्या दृष्टिजनों में भी प्रख्यात है और अत्यन्त दुष्कर है, मैंने प्रतिपादन किया है। अब आगम में प्रवेश करने वाले ऐसे सम्यग्दृष्टिजनों के द्वारा जाने गये छह भेद वाले अभ्यन्तर तप को भी मैं कहेंगा।
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