________________
पंचाचाराधिकार]
[२६३ आलोचना--..-आचार्याय देवाय वा चारित्राचारपूर्वकमुत्पन्नापराधनिवेदनं । प्रतिक्रमणं-रात्रि भोजनत्यागवृतसहितपंचमहावतोच्चारणं संभावनं दिवसप्रतिक्रमणं पाक्षिकं वा । उभयं-आलोचनप्रतिक्रमणे । विवेको-द्विप्रकारो गणविवेकः स्थानविवेको वा । तथा व्युत्सर्गः-कायोत्सर्गः । तपोऽनशनादिकं । छेदोदीक्षायाः पक्षमासादिभिर्हानि: । मूलं-पुनरद्य प्रभृति व्रतारोपणं । अपि च परिहारो द्विप्रकारो गणप्रतिबद्धोऽप्रतिबद्धो वा । यत्र प्रश्रवणादिकं कुर्वन्ति मुनयस्तत्र तिष्ठन्ति पिच्छिकामग्रतः कृत्वा यतीनां वन्दनां करोति तस्य यतयो न कुर्वन्ति, एवं या गणे क्रिया गणप्रतिबद्धः परिहारः । यत्र देशे धर्मो न ज्ञायते तत्र गत्वा मौनेन तपश्चरणानुष्ठानकरणमगणप्रतिबद्धः परिहारः । तथा श्रद्धानं तत्त्वरुची परिणाम: क्रोधादिपरित्यागो वा। एतदृशप्रकारं प्रायश्चित्तं दोषानुरूपं दातव्यमिति । कश्चिद्दोषः आलोचनमात्रेण निराक्रियते। कश्चित्प्रतिक्रमणेन कश्चिदालोचनप्रतिक्रमणाभ कश्चिद्विवेकेन कश्चित्कायोत्सर्गेण कश्चित्तपसा कश्चिच्छेदेन कश्चिन्मूलेन कश्चित्परिहारेण कश्चिच्छद्धानेनेति ॥३६२॥
प्रायश्चित्तस्य नामानि प्राह
पोराणकम्मखवणं खिवणं णिज्जरण सोधणं धुवणं।
पुंच्छणमुछिवण छिदणं ति पायच्छित्तस्स णामाई॥३६३॥
प्राचारवत्ति-आचार्य अथवा जिनदेव के समक्ष अपने में उत्पन्न हुए दोषों का चारित्राचारपूर्वक निवेदन करना आलोचना है । रात्रिभोजनत्याग व्रत सहित पाँच महाव्रतों का उच्चारण करना, सम्यक् प्रकार से उनको भाना अथवा दिवस और पाक्षिक सम्बन्धी प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमण है। आलोचना और प्रतिक्रमण दाना को करना तद्भय है। विवेक भेद हैं-गण विवेक और स्थानविवेक। कायोत्सर्ग को व्युत्सर्ग कहते हैं । अनशन आदितप हैं। पक्षमास आदि से दीक्षा की हानि कर देना छेद है। आज से लेकर पुनः व्रतों का आरोपण करना अर्थात फिर से दीक्षा देना मूल है। परिहार प्रायश्चित्त के भी दो भेद हैं- गणप्रतिबद्ध और गण अप्रतिबद्ध । जहाँ मुनिगण मूत्रादि विसर्जन करते हैं, इस प्रायश्चित्त वाला पिच्छिका को आगे करके वहाँ पर रहता है, वह यतियों की वंदना करता है किन्तु अन्य मुनि उसको वन्दना नहीं करते हैं। इस प्रकार से जो गण में क्रिया होती है वह गणप्रतिबद्ध-परिहार प्रायश्चित्त है। जिस देश में धर्म नहीं जाना जाता है वहाँ जाकर मौन से तपश्चरण का अनुष्ठान करते हैं उनके अगणप्रतिबद्ध परिहार प्रायश्चित होता है । तत्त्वरुचि में जो परिणाम होता है अथवा क्रोधादि का त्याग रूप जो परिणाम है वह श्रद्धान प्रायश्चित्त है।
यह दश प्रकार का प्रायश्चित्त दोषों के अनुरूप देना चाहिए। कुछ दोष आलोचनामात्र से निराकृत हो जाते हैं, कुछ दोष प्रतिक्रमण से दूर किये जाते हैं तो कुछेक दोष आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों के द्वारा नष्ट किये जाते हैं, कई दोष विवेक प्रायश्चित्त से, कई कायोत्सर्ग से, कई दोष तप से, कई दोष छेद से, कई मूल प्रायश्चित्त से, कई परिहार से एवं कई दोष श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त से दूर किये जाते हैं।
विशेष-आजकल 'परिहार' नाम के प्रायश्चित्त को देने की आज्ञा नहीं रही। प्रायश्चित के पर्यायवाची नामों को कहते हैं
गाथार्थ-पुराने कर्मों का क्षपण, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुंछन, उत्क्षेपण और छेदन ये सब प्रायश्चित्त के नाम हैं ।।३६३।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org