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मूलाधारे ठाणसयणासणेहि य विविहेहि य उग्गहि बहुएहि ।
अणुवीचीपरिताप्रो कार्याकलेसो हवदि एसो॥३५६॥
स्थानं-कायोत्सर्ग । शयन-एकपालमतकदण्डादिशयनं। आसनं-उत्कृाटका-पर्यंक-वीरासनमकरमुखाद्यासनं । स्थानशयनासनविविधश्चावग्रहैर्धर्मोपकारहेतुभिरभिप्रायर्बहुभिरनुवीचीपरितापः सूत्रानुसारेण कायपरितापो वामूलाभ्रावकाशातापनादिरेप कायक्लेशो भवति ॥३५६।।
विविक्तशयनासनस्वरूपमाह--
तेरिक्खिय माणुस्सिय सविगारियदेवि गेहि संसते ।
वज्जति अप्पमत्ता णिलए सयणासणट्टाणे ॥३५७॥
गाथार्थ-खड़े होना-कायोत्सर्ग करना, सोना, बैठना और अनेक विधिनियम ग्रहण करना, इनके द्वारा आगमानुकूल कष्ट सहन करना- यह कायक्लेश नाम का तप है ।।३५६।।
प्राचारवृत्ति--स्थान कायोत्सर्ग करना। शयन-एक पसवाड़े से या मृतकासन से या दण्डे के समान लम्बे पड़कर सोना। आसन--उत्कुटिकासन, पर्यकासन, वीरासन, मकरमुखासन आदि तरह-तरह के आसन लगाकर बैठना। इन कायोत्सर्ग, शयन और आसनों द्वारा तथा अनेक प्रकार के धर्मोपकार हेतु नियमों के द्वारा सूत्र के अनुसार काय को ताप देना अर्थात् शरीर को कष्ट देना; वृक्षमूल अभ्रावकाश और आतापन आदि नाना प्रकार के योग धारण करना यह सब कायक्लेश तप है।
भावार्थ--इस तश्चरण द्वारा शरीर में कप्ट-सहिष्णुता आ जाने से, घोर उपसर्ग या परीषहों के आ जाने पर भी साधु अपने ध्यान से चलायमान नहीं होते हैं। इसलिए यह तप भी बहुत ही आवश्यक है। श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है
अदुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ। तस्माद् यथाबलं दु.खैरात्मानं भावयेद् मुनिः ॥१०२॥
(समाधिशतक) -सुखी जीवन में किया गया तत्त्वज्ञान का अभ्यास दुःख के आ जाने परक्षीण हो जाता है, इसलिए मुनि अपनी शक्ति के अनुसार दुःखों के द्वारा अपनी आत्मा की भावना करे अर्थात कायक्लेश आदि के द्वारा दुःखों को बुलाकर अपनी आत्मा का चिन्तवन करते हुए अभ्यास दृढ़ करे।
विवक्तशयनासन तप का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-अप्रमादी मुनि सोने, बैठने और ठहरने में तिर्यचिनी, मनुष्य-स्त्री, विकार. सहित देवियाँ और गृहस्थों से सहित मकानों को छोड़ देते हैं । ॥३५७॥
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