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। मूलाधारे याः पुनश्चतस्रो महाविकृतयो महापापहेतवो भवन्तीति नवनीतमद्यमांसमधूनि, कांक्षाप्रसंगदसंयमकारिण्य एताः। नवनीतं कांक्षां-महाविषयाभिलाषं करोति। मधं-सुराप्रसंगमगम्यगमनं करोति । मांस-पिशितं दपं करोति । मधु असंयमं हिंसां करोति ॥३५३॥
एताः किंकर्तव्या इति पृष्टेत आह
प्राणाभिकंखिणावज्जभीरणा तवसमाषिकामेण ।
ताओ जावज्जीवं णिम्खुड्ढामो पुरा चेव ॥३५४॥
सर्वज्ञाज्ञाभिकाक्षिणा-सर्वज्ञमतानुपालकेन । अवद्यभीरुणा–पापभीरुणा, तपःकामेन–तपोनुष्ठानपरेण, समाधिकामे न च ता नवनीतमद्यमांसमधूनि विकृतयो यावज्जीवं-सर्वकालं निव्यूढाःनिसृष्टाः त्यक्ताः पुरा चैव पूर्वस्मिन्नेव काले संयमग्रहणान्पूर्वमेव । आज्ञाभिकांक्षिणा नवनीतं सर्वथा त्याज्यं दुष्टकांक्षाकारित्वात् । अवद्यभीरुणा मांसं सर्वथा त्याज्यं दर्पकारित्वात् । ततः तपःकामेन मद्यं सर्वथा त्याज्यं प्रसंगकारित्वात् । समाधिकामेन मधु सर्वया त्याज्यं, असंयमकारित्वात् । व्यस्तं समस्तं वा योज्यमिति ॥३५४॥
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आचारवृत्ति-मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चारों ही महाविकृति पाप की हेतु हैं। नवनीत विषयों की महान अभिलाषा को उत्पन्न करता है । मद्य, प्रसंग, अगम्य अर्थात् वेश्या या व्यभिचारिणी स्त्री का सहवास कराता है। मांस अभिमान को पैदा करता है और मधु हिंसा में प्रवृत्त कराता है।
इन्हें क्या करना चाहिए ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ-आज्ञापालन के इच्छुक, पापभीरु, तप और समाधि की इच्छा करनेवाले ने पहले ही इनका जीवन-भर के लिए त्याग कर दिया है ॥३५४।।
आचारवत्ति-सर्वज्ञदेव की आज्ञा पालन करनेवाले, पापभीरु, तप के अनुष्ठान में तत्पर और समाधि की इच्छा करनेवाले भव्य जीव ने संयम ग्रहण करने के पूर्व में ही इन मक्खन, मद्य, मांस और मधु नामक चारों विकृतियों का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया है।
आज्ञापालन करने के इच्छुक को नवनीत का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि वह दुष्ट अभिलाषा को उत्पन्न करनेवाला है। पापभीरु को मांस का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि वह दर्प-उत्तेजना का करनेवाला है। तपश्चरण की इच्छा करनेवाले को चाहिए कि वह मद्य को सर्वथा के लिए छोड़ दे, क्योंकि वह अगम्या-वेश्या आदि का सेवन करानेवाला है तथा समाधि को इच्छा करनेवाले को मधु का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि वह असंयम को करनेवाला है। इनको पृथक्-पृथक् या समूहरूप से भी लगा लेना चाहिए।
भावार्थ-एक-एक गुण के इच्छुक को एक-एक के त्यागने का उपदेश दिया है। वैसे ही एक-एक गुण के इच्छुक को चारों का भी त्याग कर देना चाहिए अथवा चारों गुणों के इच्छुक को चारों वस्तुओं का सर्वथा ही त्याग कर देना चाहिए।
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