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पंचाचाराधिकारः]
{२८७ पालयति । त्रिकालयोगं च न क्षेमेण समानयति । स्वाध्यायध्यानादिकं च न कर्तुं शक्नोति । तस्येन्द्रियाणि च स्वेच्छाचारीणि भवन्तीति । मिताशिनः पुनर्धर्मादयः स्वेच्छया वर्तन्त इति ॥३५२।।
रसपरित्यागस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
खीरदहिसप्पितेल गुडलवणाणं च ज परिच्चयणं ।
तित्तकटुकसायंविलमधुररसाणं च जं चयणं ॥३५२॥
अथ को रसपरित्याग इति पृष्टेऽत आह-क्षीरदधिसर्पिस्तैलगुडलवणानां घृतपूरलडुकादीनां च यत् परिच्चयणं-परित्यजनं एकैकशः सर्वेषां वा तिक्तकटुकषायाम्लमधुररसानां च यत्त्यजनं स रसपरित्यागः । एतेषां प्रासुकानामपि तपोबुद्धया त्यजनम् ।।३५२।।
याः पुनर्महाविकृतयस्ताः कथमिति प्रश्नेऽत आह---
चत्तारि महावियडी य होंति णवणीदमज्जमंसमधू । कंखापसंगदप्पासंजमकारीप्रो' एदाओ॥३५३॥
सम्बन्धी योगों को भी सुख से नहीं धारण कर सकता है तथा स्वाध्याय और ध्यान करने में भी समर्थ नहीं हो पाता है। उस मुनि की इन्द्रियाँ भी स्वेच्छाचारी हो जाती हैं। किन्त मितभोजी साधु में धर्म, आवश्यक आदि क्रियाएँ स्वेच्छा से रहती हैं।
भावार्थ-भूख से कम खानेवाले साधु के प्रमाद नहीं होने से ध्यान, स्वाध्याय आदि निर्विघ्न होते हैं किन्तु अधिक भोजन करनेवाले के, प्रमाद से, सभी कार्यों में बाधा पहँचती है। इसलिए यह तप गुणकारी है।
अब रस-परित्याग का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं
गाथार्थ-दूध, दही, घी, तेल, गुड और लवण इन रसों का जो परित्याग करना है और तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल तथा मधुर इन पाँच प्रकार के रसों का त्याग करना है वह रसपरित्याग है। ॥३५२।।
प्राचारवत्ति-रसपरित्याग क्या है ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं--दूध, दही, घी, तेल, गुड और नमक तथा वृतपूर्ण पुआ, लड्डू आदि का जो त्याग करना है। इनमें एक-एक का या सभी का छोड़ना; तथा तिक्त, कटुक, कषायले, खट्टे और मीठे इन रसों का त्याग करना रसपरित्याग तप है । इस तप में इन प्रामुक वस्तुओं का भी तपश्चरण की बुद्धि से त्याग किया जाता है।
जो महाविकृतियाँ हैं वे कौन सी हैं ? ऐसे प्रश्न होने पर कहते हैं
गाथार्थ-मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चार महाविकृतियाँ होती हैं। ये अभिलापा, प्रसंग- व्यभिचार, दर्प और असंयम को करनेवाली हैं। ॥३५३॥
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