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पंचाचाराधिकारः
[२८१ पंचमवतभावना विकल्पयन्नाह
अपरिग्गहस्स मुणिणो सहप्फारसरसरूवगंधेसु ।
रागद्दोसादीणं परिहारो भावणा पंच ॥३४॥
अपरिग्रहस्य मुनेः शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु रागद्वेषादीनां परिहारः भावनाः पंच भवन्ति । शब्दादिविषये रागद्वेषादीनामकरणानि यानि तैः सम्पूर्ण पंचमं महाव्रतं स्यादिति ॥३४१॥
किमर्थ मेता भावना भावयितव्या यस्मात्
ण करेदि भावणाभाविदो हु पीलं व दाण सम्वेसि।
साधू पासुत्ता स 'मणागवि किं दाणि वेदंतो ॥३४२॥
हु यस्मात् पंचविंशतिभावनाभावितः साधुः प्रसुप्तोऽपि निद्रांगतोऽपि समुदहोऽपि मूछींगतोऽपि सर्वपां व्रतानां मनागपि पीडां विराधनां न करोति किं पुनश्चेतयमानः । स्वप्नेऽपि ता एव भावना: पश्यति, न व्रतविराधनाः पश्यतीति ॥३४२।।
अब पाँचवें व्रत की भावना को कहते हैं
गाथार्थ-परिग्रहरहित मुनि के शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध-इनमें राग-द्वेष आदि का त्याग करना—ये पाँच भावनाएं हैं। ॥३४१॥
प्राचारवृत्ति-पाँच इन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध-ये पाँच प्रकार के विषय हैं। इनमें राग-द्वेष आदि का नहीं करना-ये पाँचों भावनाएं हैं। इन भावनाओं से पाँचवाँ महाव्रत पूर्ण होता है।।
विशेषार्थ--श्री गौतमस्वामी ने कहा है कि सचित्त-दासीदास आदि से विरति, अचित्त-धन-धान्य आदि से विरति, बाह्य-वस्त्र, आभरण आदि से विरति, अभ्यंतर-ज्ञानावरण आदि से विरति और परिग्रह-गृह क्षेत्र आदि से विरति अर्थात् मैं इन पाँचों से विरत होता हूँ।
श्रीउमास्वामी ने कहा है कि इष्ट और अनिष्ट ऐसे पाँच इन्द्रिय सम्बन्धी विषयों से राग-द्वेष का छोड़ना ये पाँच भावनाएं हैं।
किसलिए इन भावनाओं को भाना चाहिए ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ--भावना को भानेवाला वह साधु सोता हुआ भी किंचित् मात्र भी सम्पूर्ण व्रतों में विराधना को नहीं करता है। फिर जो इस समय जाग्रत है उसके प्रति तो क्या कहना ! ॥३४२॥
- आचारवृत्ति-इन पच्चीस भावनाओं को जिसने भाया हुआ है ऐसा साधु यदि निद्रा को अथवा मूर्छा को प्राप्त हुआ है तो भी वह अपने सभी व्रतों में किचित् मात्र भी विराधना नहीं करता है । पुनः जब वह जाग्रत है-सावधानी से प्रवृत्त हो रहा है तब तो कहना ही क्या ! अर्थात् स्वप्न में भी वह मुनि इन भावनाओं को ही देखता है, किन्तु व्रतों की विराधना को नहीं करता। १ क समुहदो च कि।
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