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पंचाचाराधिकारः]
। २७१ अथ यदि तत्र सूक्ष्म जीवाद्याशंका भवेत्तत आशंकाविशुद्धो आशंकाविशुद्धयर्थं अपहस्तकस्पर्शनं कुर्यात्विपरीतकरतलेन मदुना स्पर्शनं कर्तव्यमिति ॥३२३॥
तेन प्रज्ञाश्रवणेन सति सवितरि चक्षुर्विपये च सति त्रीणि स्थानानि द्रष्टव्यानि भवन्ति किमर्थमित्याह
जदि तं हवे असुद्ध बिदियं तदियं अणुण्णए साहू ।
लहुए अणिच्छयारे ण देज्ज साधम्मिए गुरुए ॥३२४॥
यदि तत्प्रथमस्थानं प्रेक्षितमशुद्धं भवेद् द्वितीय स्थानमनुजानात्यनुमन्येत । तदपि यद्यशुद्ध तृतीय स्थानमनुजानाति जानीत (ते) गच्छेद्वा साधुः संयतः । अथ कदाचित्तस्य साधोधितस्यान्यस्य वा लघुशीघ्रम मुद्धपि प्रदेशे मलच्युतिरनिच्छ्या विनाभिप्रायेण भवेत् ततस्तस्मिन् सामणि धार्मिक साधा आए अय: प्रायश्चित्तं तद्गुरु न दातव्यं । अयः पुण्यं, अयनिमित्तत्वात् प्रायश्चित्तमप्ययमित्युच्यते । यत्नपरस्य न बह
आशंका होवे तो आशंका की विशुद्धि के लिए वायें हाथ से उस स्थान का स्पर्श करना चाहिए।
विशेष-यदि जीवों का विकल्प है तो वाय हाथ से स्पर्श करने से जीवों का पता चल जायेगा, पुनः वह मुनि उस स्थान से हटकर किचित् दूर जाकर मलमूत्रादि क्सिजित करे ऐसा अभिप्राय समझना।
उन प्रज्ञाश्रमण को सूर्य के रहते हुए प्रकाश में अपने नेत्रों के द्वारा तीन स्थान देखना चाहिए। ऐसा क्यों ? सो बताते हैं --
गाथार्थ-यदि वह स्थान अशुद्ध हो तो साधु दूसरे या तीसरे स्थान की अनुमति देवे । जल्दी में किसी की इच्छा बिना अशुद्ध स्थान में मलादि च्युत हो जाने पर उस धर्मात्मा मुनि को बड़ा प्रायश्चित नहीं देवे । ।।३२४।।
प्राचारवृत्ति-प्रज्ञाश्रमण ने पहले जो स्थान देखा है यदि वह अशुद्ध हो तो वे मुनि दूसरे स्थान को देखकर उसकी स्वीकृति देवें। यदि वह भी अशुद्ध हो तो वे प्रज्ञाश्रमण साधु तीसरे स्थान का निरीक्षण करके स्वीकृति देवें । अथवा तीसरे स्थान में संयत शौच आदि के लिए जावें। यदि कदाचित् कोई साधु अस्वस्थ है अथवा अन्य कोई साधु जो कि अस्वस्थ नहीं भी है, उससे बाधा हो जाने से अकस्मात् अशुद्ध भी प्रदेश में शीघ्र ही बिना अभिप्राय के मलच्युति हो जावे, उसे मल विसर्जन करना पड़ जावे तब उस धार्मिक साधु के लिए आचार्यदेव को बड़ा प्रायश्चित नहीं देना चाहिए।
अयः का अर्थ पुण्य है ।पुण्य का निमित्त होने से प्रायश्चित्त को भी यहाँ गाथा में 'अयः' शब्द से कहा गया है। प्र+अयः चित्तं इति प्रायश्चित्तं अर्थात् संस्कृत में प्रकृप्टरूप से अयः अर्थात् पुण्यरूप चित्त-परिणाम को प्रायश्चित्त कहा है।
१ द अय एव अयः।
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