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[मूलाचार उच्चारं पस्सवणं खेलं सिंघाणयादियं दव।
अच्चित्तभूमिदेसे पडिलेहित्ता विसज्जेज्जो ॥३२२॥
उच्चारं अशुचिः। प्रस्रवणं मुत्रं । खेलं श्लेष्प्राणं । सिंघाणकं नासिकापस्करं । आदिशब्देन केशोत्पाटबालान् मदप्रमादवातपित्तादिदोषान् सप्तमधातु छादिकं च पूर्वोक्तविशेषणविशिष्ट अचित्तभूमिदेशे हरिततणादिरहिते प्रतिलेखयित्वा सुष्ठ निरूप्य विसर्जयेत् । पूर्व सामान्यव्याख्यात'मिदं तु सप्रपंचमिति कृत्वा न पोनरुक्तयमिति ॥३२३॥
अथ रात्रौ कथमिति चेदित्यत आह
रादो दु पमज्जित्ता पण्णसमणपेक्खिदम्मि प्रोगासे'।
आसंकविसुद्धीए अवहत्थगफासणं कुज्जा ॥३२३॥
रात्रौ तु प्रज्ञाश्रवणेन वैयावृत्यादिकुशलेन साधुना विनयपरेण सर्वसंघप्रतिपालकेन वैराग्यपरेण जितेन्द्रियेण प्रेक्षिते सुष्ठुदृष्टेऽवकाशकप्रदेशे पुनरपि स वक्षुषा प्रतिलेखनेन प्रमार्जयित्वोच्चारादीन् विसृजेत् ।
गाथार्थ-मल, मूत्र, कफ, नाकमल आदि वस्तु को अचित्त भूमि प्रदेश में देख-शोधकर विसर्जित करे॥३२२॥
प्राचारवत्ति-उच्चारविष्ठा, प्रस्रवण-मत्र, खेल-कफ, सिंघाणक-नाक का मल, 'आदि' शब्द से लोंच करके उखाड़े गये बाल, मद, प्रमाद या वात-पित्त आदि से उत्पन्न हुए दोष-विकार, वीर्य और वमन आदि अनेक प्रकार के शरीर के मल संगृहीत हैं। इन सभी मलों का पूर्वोक्त गाथा कथित विशेषणों से विशिष्ट हरे तृण अंकुर आदि रहित अचित्त भूमिप्रदेश में पहले देखकर पुनः पिच्छिका से परिमार्जित करके त्याग करे। पूर्व में सामान्य कथन था और इस गाथा में सविस्तार कथन है इसलिए यहाँ पुनरुक्ति दोष नहीं है अर्थात् पूर्व गाथा में निर्जतुक स्थान के अनेक विशेषण बताये थे किन्तु वहाँ मलमूत्रादि का विसर्जन करे ऐसा सामान्य कथन किया था। यहाँ पर शरोर मल के अनेकों प्रकार बताकर विशेष कथन कर दिया है, इस लिए पुनः एक ही बात को कहने रूप पुररुक्ति दोष नहीं आता है।
अब रात्रि में कैसे मलमूत्रादि विसर्जन करे ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ–रात्रि में बुद्धिमान मुनि के द्वारा देखकर बताये गए स्थान में परिमार्जन करके जीवों की आशंका दूर करने हेतु वायें हाथ से स्पर्श करे, पुनः मलमूत्रादि विसर्जन करे। ॥३२३॥
आचारवृत्ति-जो साधु वैयावृत्ति आदि में कुशल हैं, विनयशील हैं, सर्व संघ के प्रतिपालक हैं, वैराग्य में तत्पर हैं, जितेन्द्रिय हैं उन्हें प्रज्ञाश्रमण कहते हैं। ये प्रज्ञाश्रमण मुनि रात्रि के लिए किसी एक स्थान को अच्छी तरह देखकर अन्य साधुओं को बता देते हैं। ऐसे इन मुनि के द्वारा देखे हुए स्थान में रात्रि में मुनि पुनरपि अपनी दृष्टि से देखकर और पिच्छिका से परिमार्जित करके मलमूत्रादि का त्याग करे। और यदि वहाँ पर सूक्ष्मजीव आदि की
१ क 'ख्यान । २ क उवगासे ।
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