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पंचाचाराधिकारः ]
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तस्माच्चेष्टितुकामः पर्यटितुमना यदा तदा यत्र तत्र यथा तथा भव त्वं समितः समितिपरिणतः । हि यस्मात् समितोऽन्यन्नवं कर्म नाददाति न गृह्णाति । पुराणकं सत्कर्म च क्षपयति निर्जरयतीति ॥ ३३०६ एवं समितिस्वरूपं व्याख्याय गुप्तीनां सामान्यविशेषभूतं च लक्षणमाह
प्रवृत्तिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । मनः प्रवृत्ति वाक्प्रवृत्ति कायप्रवृत्ति च । किंविशिष्टां सावद्यकार्यसंयुक्तां हिंसादिपापविषयां । भिक्षुः साधुः शीघ्र निवारयंस्त्रिगुप्तो भवत्येषः । गुप्तेः सामान्यलक्षणमेतत् ॥३३१॥
मणवच कायपत्ती भिक्खू सावज्जकज्जसंजुत्ता ।
खिप्पं निवारयंतो तीहि दु गुत्तो हवदि एसो ॥ ३३१॥
विशेषलक्षणमाह
कहते हैं
जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ती ।
प्रलियादिणियत्ती वा मोणं वा होदि वचिगुत्ती ॥ ३३२ ॥
रागद्वेषादिभ्यो मनसो या निवृत्तिश्चेतसा तेषां परिहारस्तां जानीहि मनोगुप्ति मनः संवृत्ति ।
प्राचारवृत्ति - इसलिए जब चेष्टा करने की इच्छा हो, पर्यटन करने की इच्छा हो अर्थात् कोई भी प्रवृत्ति करने की इच्छा हो तब तुम समिति से परिणत होओ; क्योंकि समिति में तत्पर हुए मुनि अन्य नवीन कर्मों को ग्रहण नहीं करते हैं तथा पुराने - सत्ता में स्थित हुए कर्मों की निर्जरा कर देते हैं ।
इस प्रकार से समिति का स्वरूप बताकर अब गुप्तियों का सामान्य - विशेष लक्षण
गाथार्थ - पापकार्य से युक्त मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को शीघ्र ही निवारण करता हुआ यह मुनि तीन गुप्तियों से गुप्त होता है । ।। ३३१ ।।
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श्राचारवृत्ति - प्रवृत्ति शब्द को प्रत्येक के साथ लगा लेना चाहिए । अतः जो मुनि सावद्य कार्य संयुक्त-हिंसादि पापविषयक मन की प्रवृत्ति को, वचन की प्रवृत्ति को और काय प्रवृत्ति को शीघ्र ही दूर करता है वह तीन गुप्तियों से गुप्त अर्थात् रक्षित होता है । यह गुप्ति का सामान्य लक्षण है ।
अब गुप्तियों का विशेष लक्षण कहते हैं
गाथार्थ - मन से जो रागादि निवृत्ति है उसे मनोगुप्ति जानो । असत्य आदि से निवृत्ति होना या मौन रहना वचन गुप्ति है | ॥३३२॥
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आचारवृत्ति - राग-द्व ेष आदि से मन का जो रोकना है अर्थात् मन से जो रागादि भावों का त्याग करना है उसे मन के संवरणरूप मनोगुप्ति जानो । और, जो असत्य अभिप्रायों से वचन को रोकना है, अथवा मौन रहना है, ध्यान-अध्ययन, चितनशील होना अर्थात् वचन के
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