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पंचाचाराधिकारः]
[२५१ द्विविधगन्धेषु शोभनाशोभनभेदभिन्नेषु आई महिषीयक्षकर्दमकस्तूरीकर्पूरकालागुरुचन्दनकुंकुमजातिमल्लिकापाटलादिविभिन्नेषु तथा विभीतकाशुचिस्वेदव्रणादिप्रभवेष्वनिष्टेषु यद्रागद्वेषयो: करणं । तथाष्टप्रकारेषु स्पर्शेषु मृदुकर्कशशीतोष्णस्निग्धरूक्ष गुरुलघुभेदभिन्नेषु स्त्रीवस्त्र सूलीकादिप्रभवेषु तथा भूमिशिलातृणशर्करादिप्रभवेषु यद्रागद्वेष करणं तत्सर्वमिन्द्रियप्रणिधान मस्तीति ।।२६६।। इन्द्रियप्रणिधान मुक्तमीषदिन्द्रियप्रणिधानं किंस्वरूपमिति पृष्टेऽत आह
णोइंदियपणिधाणं कोहे माणे तहेव मायाए।
लोहे य णोकसाए मणपणिधाणं तु तं वज्जे ॥३००॥
क्रोधे माने मायायां तथैव लोभे चैकस्मिश्चतुर्विधे एतद्विषये यदेतन्मनःप्रणिधानं मनोव्यापारमोहायित, कुट्टिमित, विव्वोक, ललित और विहृत ये दश स्त्रियों के स्वाभाविक भाव हैं । शोभा, कांति, माधुर्य, धैर्य, प्रगल्भता और औदार्य ये अयत्नज भाव हैं । बत्तीस करण होते हैं । कटाक्ष से देखना, नृत्य, गीत, हास्य आदि का प्रयोग करना इत्यादि सब मनोहर रूप के ही भेद हैं। इनसे राग करना तथा इनसे विपरीत अमनोज्ञरूप में द्वेष करना यह चक्षुइन्द्रियप्रणिधान है।
गन्ध के भी शोभन और अशोभन दो भेद होते हैं। आर्द्रमहिषी (सुगंधित पदार्थ), यक्षकर्दम-महासुगंधियुवत द्रव्य, कस्तूरी, कपूर, कालागुरु, चन्दन, कुंकुम (केशर), जातिपुष्प, मल्लिका पुष्प, पाटलपुष्प (गुलाब) आदि से उत्पन्न होनेवाली सुगन्ध अनेक प्रकार है। तथा विभीतक-अपवित्र वस्तु, पसीना या व्रण आदि से उत्पन्न हुआ दुर्गन्ध अनेक प्रकार है। इन सुगन्ध-दुर्गन्ध में राग-द्वेष करना घ्राणेन्द्रिय-प्रणिधान है।
स्पर्श आठ प्रकार के हैं-मृदु, कठोर, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु और लघु । स्त्री, वस्त्र, शय्या आदि से उत्पन्न सुखकर स्पर्श में राग करना तथा भूमि, शिला, तृण, शर्करा (मोटी रेत) आदि से उत्पन्न हुए दुःखकर स्पर्श में द्वष करना यह स्पर्शनेन्द्रिय-प्रणिधान है। इस प्रकार से सभी इन्द्रिय सम्बन्धी प्रणिधान का वर्णन किया गया है।
इन्द्रिय प्रणिधान के स्वरूप का कथन किया। ईषत् इन्द्रिय अर्थात् मनःप्रणिधान का क्या स्वरूप है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं
गाथार्थ-क्रोध, मान, माया तथा लोभ में नोइन्द्रिय प्रणिधान और नव नोकषायों में जो मन का प्रणिधान है उनको छोड़ देवे॥३०॥
प्राचारवत्ति-क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषायें चार हैं। इन प्रत्येक के भी चार-चार भेद-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन रूप होते हैं । अर्थात् अनन्तानुबन्धी आदि के भेद से क्रोधादि कषायें सोलह भेदरूप हैं। इन १ क तूलिका"। २ क 'नमप्रशस्तमिति । ३ 'शोभा कान्तिश्च दीप्तिश्च माधुर्यं च प्रगल्भता।
औदार्य धर्यमित्येते सप्तव स्युरयत्नजाः ॥'–साहित्यदर्पण ।
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