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५. पंचाचाराधिकारः
पंचाचाराधिकारप्रतिपादनार्थं नमस्कारमाह
तिहुयणमन्दरम हिदे तिलोगबुद्धे तिलोगमत्थत्थे । तेलोक्कविदिदवीरे तिविहेण य पणिविदे सिद्धे ॥ १६८ ॥
तिहुयणमंदरम हिदे - मन्दरे मेरो महिताः पूजिताः स्वापिताः मन्दरमहिताः त्रयाणां भुवनानां लोकानां समाहारस्त्रिभुवनं तेन मन्दरमहितास्त्रिभुवनमन्दरमहिताः । अथवा त्रिभुवनस्य मन्दरा प्रधानाः सौधर्मेन्द्रादयस्तं महितास्त्रिभुवनमन्दरमहितास्तांस्त्रिभुवनमन्दरमहितान् । तिलोगबुद्धे – त्रिलोकानां त्रिलोकैर्वा बुद्धा ज्ञातारः ज्ञाता वा त्रिलोकबुद्धास्तांस्त्रिलोकबुद्धान् । तिलोगमत्थत्थे — त्रिलोकस्य मस्तकं सिद्धिक्षेत्रं तस्मि स्तिष्ठन्तीति त्रिलोकमस्तकस्थास्तांस्त्रिलोक मस्तकस्थान् सिद्धिक्षेत्रस्थान् । तेलोक्कविदिदवीरे— त्रिषु लोकेषु विदितः ख्यातो वीरो वीर्यं येषां अथवा त्रिलोकानां विदिताः प्रख्यातास्ते च ते वीराः शूराश्च त्रिलोकविदितवीरा त्रैलोक्यविदितवीर्यान् त्रिलोकविदितवीरान्वा । तिविहेण — त्रिविधेन त्रिप्रकारेण मनोवचनकर्मभिः । पणिविदे - प्रणिपत्य क्त्वान्तोऽयं, अथवा प्रणिपतामि मिङन्तोऽयं क्रियाशब्दः । सिद्धे – सिद्धान् निराकृतनिर्मूलकर्माणः । न चात्र तेषामसिद्धता पूर्वापराविरुद्धागम तत्स्वरूपप्रतिपादकप्रमाणसद्भावात्, तत्सद्भावबाध
अब पंचाचार अधिकार के प्रतिपादन हेतु नमस्कार - गाथा को कहते हैं
गाथार्थ - त्रिभुवन के प्रधान पुरुषों से पूजित, तीन लोक को जाननेवाले, तीन लोक के अग्रभाग पर स्थित, तीन लोक में विख्यात वीर -- ऐसे सिद्धों को मन, वचन और काय से प्रणाम करता हूँ ।। १६८ ।।
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आचारवृत्ति - मन्दर - सुमेरु पर जिनका त्रिभुवन के इन्द्र द्वारा अभिषेक किया गया त्रिभुवनमन्दर सहित हैं । अथवा त्रिभुवन के मन्दर - प्रधान जो सौधर्म आदि देव हैं उनसे जो महित - पूजित हैं। तीनों लोकों के जो जाननेवाले हैं अथवा तीनों लोकों के द्वारा जो बुद्धज्ञात हैं वे त्रिलोकबुद्ध हैं । त्रिलोक के मस्तक पर - सिद्ध क्षेत्र पर जो विराजमान हैं, जिनका वीर्य तीनों लोकों में ख्यात है अथवा तीनों लोकों में वे प्रख्यातवीर - शूर हैं अथवा तीनों लोकों के वीर्य-शक्ति को जिन्होंने जान लिया है वे त्रिलोकविदितवीर हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण कर्मों को निर्मूल कर दिया है वे सिद्ध परमेष्ठी हैं ऐसे उपर्युक्त विशेषण युक्त अर्हत और सिद्धपरमेष्ठी को मैं नमस्कार करके पाँच आचारों को कहूँगा । इस तरह यहाँ पर 'वक्ष्ये' क्रिया का अध्याहार कर लेना चाहिए। और 'पणिविदे' क्रिया को क्त्वा प्रत्ययान्त समझकर 'नमस्कार करके' ऐसा अर्थ करना अथवा 'प्रणिपतामि' ऐसा 'मिङन्त' क्रियापद ही समझना ।
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