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[मूलाचारे भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च ।
पासवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत ॥२०३॥
अवयवार्थपूर्विका वाक्यार्थप्रतिपत्तिरिति कृत्वा तावदवयवार्थो व्याख्यायते। भूवत्येण-भूतश्चासावर्थश्च भूतार्थस्तेन । यद्यप्ययं भूतशब्दः पिशाचजीवसत्यपृथिव्याद्यनेकाथें वर्तते तथाप्यत्र सत्यवाची परिगृह्यते, तयार्थशब्दो यद्यपि पदार्थप्रयोजनस्वरूपाद्यर्थे वर्तते तथापि स्वरूपार्थे वर्तमानः परिगृहीतोऽन्यार्थवाचकेन प्रयोजनाभावात, भतार्थेन सत्यस्वरूपेण याथात्म्येन। अभिगवा--अभिगताः अधिगताः स्वेन स्वेन स्वरूपेण प्रतिपन्नाः जीवाश्चेतनलक्षणा ज्ञानदर्शनसुखदुःखानुभवनशीला:। तद्व्यतिरिक्ता अजीवाश्च पुद्गलधर्माधर्मास्तिकायाकाशकालाः रूपादिगतिस्थित्यवकाशवर्तनालक्षणाः। पुण्णं-शुभप्रकृतिस्वरूपपरिणतपुद्गलपिंडो जीवाह्लादननिमित्तः । पावं-पापं चाशुभकर्मस्वरूपपरिणतपुद्गलप्रचयो जीवस्यासुखहेतुः । आसव-आसमन्तात् स्रवत्युपढौकते कर्मानेनास्रवः । संवर-कर्मागमनद्वारं संवृणोतीति संवरणमात्र वा संवरोऽपूर्वकर्मागमननिरोधः । णिज्जर-निर्जरणं निर्जरयत्यनया वा निर्जरा जीवलग्नकर्मप्रदेशहानिः । बंधो-बध्यतेऽनेन बन्धनमात्र वा बन्धो जीवकर्मप्रदेशान्योन्यसंश्लेषोऽस्वतंत्रीकरणं । मोक्खो-मुच्यतेऽनेन मुक्तिर्वा मोक्षो जीव
गाथार्थ सत्यार्थरूप से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये ही सम्यक्त्व हैं ।।२०३।।
प्राचारवृत्ति-अवयवों के अर्थपूर्वक ही वाक्य के अर्थ का ज्ञान होता है, इसलिए पहले अवयव के अर्थ का व्याख्यान करते हैं । अर्थात् पदों से वाक्य रचना होती है इसलिए प्रत्येक पद का अर्थ पहले कहते हैं जिससे वाक्यों का ज्ञान हो सकेगा।
भूत और अर्थ इन दो पदों से भूतार्थ बना है। उसमें से यद्यपि भूत शब्द पिशाच, जीव, सत्य, पृथ्वी आदि अनेक अर्थों में विद्यमान है फिर भी यहाँ पर सत्य अर्थ में होना चाहि हए। उसी प्रकार से अर्थ शब्द यद्यपि पदार्थ, प्रयोजन और स्वरूप आदि अनेक अर्थों का वाचक है फिर भी यहाँ पर स्वरूप अर्थ में लिया गया है क्योंकि यहाँ पर अन्य अर्थ का प्रयोजन नहीं है। तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ जिस रूप से व्यवस्थित हैं वे अपने-अपने स्वरूप से ही जाने गये हैं, सम्यक्त्व हैं।
जीव का लक्षण चेतना है । वह चेतना ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख के अनुभव स्वभाववाली है, उससे व्यतिरिक्त पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये अजीव द्रव्य हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुणवाला पुद्गल है। धर्मद्रव्य जीव-पुद्गलों की गति में सहायक होने से गति लक्षणवाला है। अधर्मद्रव्य इनकी स्थिति में सहायक होने से स्थितिलक्षण वाला है। आकाश द्रव्य सभी द्रव्यों को अवकाश देने वाला होने से अवकाश लक्षणवाला है और काल द्रव्य वर्तना लक्षणवाला है। शुभ प्रकृति स्वरूप परिणत हुआ पुद्गल पिण्ड पुण्य कहलाता है जो कि जीवों में आह्लादरूप सुख का निमित्त है। अशुभ कर्म स्वरूप परिणत हुआ पुद्गलपिण्ड पापरूप है जो कि जीव के दुःख का हेतु है। जिससे कर्म आ–सब तरफ से, स्रवति -आते हैं वह आस्रव है अर्थात् कर्मों का आना आस्रव है। कर्म के आगमन-द्वार को जो रोकता है अथवा कर्मों का रुकना मात्र ही संवर है अर्थात् आनेवाले कर्मों का आना रुक जाना
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