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प्रमादरहिता विद्वांसो रुन्धन्ति प्रतिकूलयन्ति । अनेन संवारको जीवो व्याख्यात इति ॥ २४०॥
आस्रव संवरसमुच्चयप्रतिपादनायोत्तरगाथा संवरकारणाय वामिच्छत्ताविरदीहिय कसायजोगेहि जं च आसर्वादि । दंसणविरमणणिग्गहणिरोधर्णेहिं तु णासवदि ॥ २४१ ॥ मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगैर्यत्कर्मास्रवति, दर्शन विरतिनिग्रहनिरोधनैस्तु नास्रवति । न च पूर्वगाथानां पौनरुक्त्यं बन्धास्रवसंवरभेदेन व्याख्यानाद् द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिक शिष्यसंग्रहाद्वा ।। २४१ ।।
निर्जरार्थप्रतिपादनायोत्तरप्रबन्धः ----
संयमजोगे जुत्तो जो तवसा चेट्टदे प्रणेगविधं ।
सो कम्मणिज्जराए विउलाए वट्ठदे जीवो ॥ २४२ ॥
[ मूलाधारे
निर्जरक निर्जरा निर्जरोपायास्तत्र निर्जरकः किंविशिष्ट इत्यत आह-संयमो द्विविध इन्द्रियसंयमः प्राणसंयमश्च | जोगे-योगे यत्नः शुभमनोवचनकायो ध्यानं वा । संयमयोगयुक्तो यस्तपसा तपसि वा चेष्टते प्रवर्ततेऽनेकविधे द्वादशविधे वा, द्वादशविधं तपो यः करोति यत्नपरः स कर्मनिर्जरायां कर्मविनाशे वर्तते जीवः
पदार्थ का व्याख्यान किया गया समझना चाहिए ।
अब आस्रव और संवर को समुच्चय रूप से प्रतिपादित करने हेतु अथवा संवर के कारणों को कहने के लिए अगली गाथा कहते हैं
गाथार्थ - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इनसे जो कर्म आते हैं वे सम्यग्दर्शन, विरतिपरिणाम, निग्रह और निरोध से नहीं आते हैं || २४१||
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आचारवृत्ति - मिथ्यात्व से जो कर्म आता है वह सम्यग्दर्शन से नहीं आता है । अविरतिपरिणाम से जो कर्म आता है वह व्रतपरिणामों से नहीं आता है । कषायों से जो कर्म आते हैं वे कषायों के निग्रह से अर्थात् क्षमा आदि भावों से नहीं आते हैं और योग से जो कर्म आते हैं वे योग के निरोध से नहीं आते हैं । पूर्व गाथा में और इसमें एक बात होने से पुनरुवित दोष होता है ऐसा नहीं कहना, क्योंकि क्रम से बन्ध, आस्रव और संवर के भेद से व्याख्यान किया गया है । अथवा द्रव्यार्थिक नय से और पर्यायार्थिक नय से समझनेवाले शिष्यों के लिए ही ऐसा कथन किया गया है ।
अब निर्जरा पदार्थ का प्रतिपादन करते हैं
गाथार्थ-संयम के योग से युक्त जो जीव तपश्चर्या से अनेक प्रकार प्रवृत्ति करता है वह जीव विपुल कर्म - निर्जरा में प्रवृत्त होता है ॥२४२॥
प्राचारवृत्ति - निर्जरा करनेवाला, निर्जरा और निर्जरा के उपाय ये तीन जाने योग्य हैं । उसमें से निर्जरा करनेवाला आत्मा कैसा होता है ? सो ही बताते हैं । संयम दो प्रकार का है - इन्द्रिय संयम और प्राणी संयम । प्रयत्न को शुभ मन-वचन-काय को अथवा ध्यान को योग कहते हैं । जो मुनि द्विविध संयम से और शुभ योग से सहित हैं और अनेक प्रकार के अथवा बारह प्रकार के तपश्चरण में प्रवृत्ति करते हैं अर्थात् जो प्रयत्न पूर्वक बारह प्रकार का तप करते हैं वे बहुत-सी कर्म निर्जरा को करते हैं । इस से निर्जरा के उपायों का कथन किया गया है।
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