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गामं नगरं रण्णं थूलं सच्चित्त बहु सपडिवक्वं । अज्झत्थ बाहिरत्थं तिविहेण परिग्गहं वज्जे ॥ २६३ ॥
ग्रामं, नगरं, अरण्यं, पत्तनं, मटंवादिकं च । स्थूलंक्षेत्रगृहादिकं । सचित्तं दासीदासगोमहिष्यादिकं । बहुमनेकभेदभिन्नं । सप्रतिपक्षं सूक्ष्मं चित्रैकरूपं नेत्रचीन कौशेयद्रव्यमणिमुक्ताफलसुवर्णभाण्डादिकं । अध्यात्मं मिथ्यात्व-वेद-राग- हास्य- रत्यरति शोक-भय-जुगुप्सा-क्रोध-मान-माया लोभात्मकं बहिःस्थं क्षेत्रवास्त्वादिकं दशप्रकारं । मनोवाक्कायकर्मभिः कृतकारितानुमतैः परिग्रहं श्रामण्यायोग्यं वर्जयेत् । सर्वथा मूर्च्छा त्याज्येति नैः सर्ग्य [नैः संग्य ] माचरेत् ॥२६३॥
अथ महाव्रतानामन्वर्थव्युत्पत्ति प्रतिपादयन्नाह -
साहंति जं महत्यं आचरिदाणी य जं महत्लेहि । जं च महल्लाणि तदो महब्वयाइं भवे ताइं ॥ २६४ ॥
[मूलाबारे
यस्मान्महार्थं मोक्षं साधयन्ति, यस्माच्च महद्भिस्तीर्थकरादिभिराचरितानि सेवितानि, यतश्च स्वत एव महान्ति सर्वसावद्यत्यागात् ततस्तानि महाव्रतानि भवन्ति । न पुनः कपालादिग्रहणेनेति ॥ २६४॥
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गाथार्थ--ग्राम, नगर, अरण्य, स्थूल, सचित्त और बहुत तथा स्थूल आदि से उल्टे सूक्ष्म, अचित्त, स्तोक ऐसे अंतरंग और बहिरंग परिग्रह को मन-वचन-काय से छोड़ देवे ॥२९३॥
श्राचारवृत्ति - ग्राम, नगर, वन, पत्तन, और मटंब आदि स्थूल अर्थात् खेत घर आदि; सचित्त - दासी, दास, गौ, महिषी आदि, बहु - अनेक भेदरूप; इनसे उलटे सूक्ष्म - नेत्र, चीनपट्ट, रेशम, द्रव्य, मणि, मोती, सोना और भांड - बर्तन आदि परिग्रह; अध्यात्म - अन्तरंग परिग्रह; मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे चौदह प्रकार का है । बाह्य परिग्रह क्षेत्र वस्तु आदि भेद से दश प्रकार का है। उपर्युक्त ग्राम आदि भेद इन दश में ही सम्मिलित हो जाते हैं । मुनिपने के अयोग्य ऐसे इन चौबीस प्रकार के परिग्रह का मुनि मन-वचन-काय और कृत- कारित अनुमोदना रूप (३ x ३ = ६ नव कोटि) से त्याग कर देवे । अर्थात् मूर्च्छा ही परिग्रह है, उस मूर्च्छा का सर्वथा ही त्याग कर देना चाहिए । इस प्रकार से निःसंग प्रवृत्ति का आचरण करना चाहिए ।
अब महाव्रतों की अन्वर्थ व्युत्पत्ति प्रतिपादित करते हैं
गाथार्थ - जिस हेतु से ये महान् पुरुषार्थ को सिद्ध करते हैं और जिस हेतु से ये महापुरुषों के द्वारा आचरण में लाये गए हैं और जिस हेतु से ये महान् हैं उसी हेतु से ये महाव्रत कहलाते हैं । २६४ ॥
श्राचारवृत्ति - जिस कारण से ये महान् मोक्ष को सिद्ध करते हैं, जिस कारण से तीर्थकर आदि महापुरुषों के द्वारा सेवित हैं और जिस कारण से ये स्वतः ही महान् हैं क्योंकि ये सर्गसावद्य के त्यागरूप हैं उसी कारण से ये महाव्रत कहलाते हैं । किन्तु कपाल आदि पात्रों को ग्रहण करने से कोई महान् नहीं होते हैं । अर्थात् कपाल आदि का जैनागम में निषेध' है ये महाव्रत के लक्षण नहीं हैं अपितु उपर्युक्त अर्थ हो महाव्रत का अन्वर्थ है |
१ सूक्ष्माचित्तैक ।
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