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[मूलाचारे किमितिकृत्वायं प्रबजितो रात्रौ प्रविष्टो दुरारेकः स्यात् । गृहस्थानामात्मविपत्तिश्चि भवेत् । स्थाणुपशुसिंहचौरसारमेयनगररक्षकादिभ्यो रात्रिभक्तप्रसंगेन रात्रावाहारार्थं पर्यटतस्तस्माद्रात्रिभोजनं त्याज्यमिति ।
पंचविधमाचारं व्याख्याय समित्यादिद्वारेणाष्टविधं व्याख्यातुकामः प्राह
पणिधाणजोगजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु।
एस चरित्ताचारो अढविहो होइ णायव्वो॥२६७॥
प्रणिधानं परिणामस्तेन योगः सम्पर्कः प्रणिधानयोगः । युक्तो न्याय्यः शोभनमनोवाक्कायप्रवृत्तयः । पंचसमितिषु त्रिषु गुप्तिषु । एष चारित्राचारोऽष्ट विधो भवति ज्ञातव्यः । महाव्रतभेदेन पंचप्रकार: आचारः ।
विशेष-मुनियों के लिए रात्रिभोजन त्याग को अन्यत्र आचार्यों ने छठा अणुव्रत नाम दिया है। यथा, मुनियों के जो देवसिक, पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण हैं वे गौतमस्वामीकृत हैं। उनके विषय में टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य ने ऐसा कहा है कि "श्रीगौतम स्वामी मुनियों को दुःषमकाल में दुष्परिणाम आदि के द्वारा प्रतिदिन उपार्जित कर्मों की विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण लक्षण उपाय को कहते हुए उसके आदि में मंगल हेतु इष्ट देवता विशेष को नमस्कार करते
___ इन प्रतिक्रमणों में स्थल-स्थल पर छठे अणुव्रत का उल्लेख है। जैसे कि "आहावरे छठे अणुव्वदे सां भत्ते । राइभोयणं पच्चक्खामि जावज्जोवं ।"२
अकलंक देव पाँच व्रतों के वर्णन करनेवाले सूत्र के भाष्य में कहते हैं
"रात्रिभोजन विरति को यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यह भी छठा अणुव्रत है ? उत्तर देते हैं-नहीं, क्योंकि अहिंसाव्रत की भावनाओं में यह अन्तर्भत हो जाता है।" इत्यादि।
कहने का मतलब यही है कि इस व्रत को छठा अणुव्रत कहा गया है । इसे अणुव्रत कहने का अभिप्राय यह भी हो सकता है कि भोजन का सर्वथा त्याग न होकर रात्रि में ही है। अतएव 'अणुव्रत' संज्ञा सार्थक है।
पाँच प्रकार के आचार महाव्रत का व्याख्यान करके अब समिति आदि के द्वारा अष्टविध प्रवचनमातृका को कहने के इच्छुक आचार्य कहते हैं
गाथार्थ-पाँच समिति और तीन गुप्तियों में शुभ मन-वचन-काय की प्रवृत्तिरूप यह चारित्राचार आठ प्रकार का है ऐसा जानना चाहिए ।।२६७॥
__ आचारवृत्ति-प्रणिधान परिणाम को कहते हैं। उसके साथ योग-संपर्क सो प्रणिधानयोग है । युक्त का अर्थ न्यायरूप है । अर्थात् शोभन मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को प्रणिधानयोग युक्त कहा है । पाँच समिति और तोन गुप्तियों में जो शुभ परिणाम युक्त प्रवृत्ति है सो यह १. श्रीगौतमस्वामी मुनीनां दुःषमकाले दुष्परिणामादिभिः प्रतिदिनमुपाजितस्य कर्मणो विशुद्धयर्थं प्रतिक्रमणलक्षणमुपायं विदधानः [प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी] २. पाक्षिकप्रतिकमण।
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