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पंचाचाराधिकारः ]
दप्येवमादिधनादिकं विरोधकारणं नेहितव्यं । यतस्तत्सर्वमदत्तं स्तेयस्वरूपमिति ॥ २६१ ॥
चतुर्थव्रतस्वरूपनिरूपणायाह
अच्चित्तदेवमाणुस तिरिक्खजादं च मेहुणं चदुधा । तिविहेण तं ण सेवदि णिच्चपि मुणी हि पयदमणो ॥ २६२ ॥
अचित्तं चित्र लेप-पुस्त - भांड-शैल-वंधादिकर्मनिर्वर्तितस्त्रीरूपाणि भवनवानव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासदेवस्त्रियः, ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रस्त्रियश्च, वडवागोमहिष्यादितिरश्च्यश्च, एताभ्यो जातमुत्पन्नं चतुर्धा मैथुनं रागोद्रेकात्कामाभिलाषं त्रिविधेन मनोवचनकायकर्मभिः कृतकारितानुमतस्तन्न सेवते । नित्यमपि मुनिः प्रयत्नमनाः । हि स्फुटं । स्वाध्यायपरो लोकव्यापाररहितः सर्वाः स्त्रीप्रतिमाः मातृदुहितृभगिनीवत् चिंतेत् । काकी ताभिः सहैकान्ते तिष्ठेत् । न वर्त्मनि गच्छेत् । न च रहसि मंत्रयेत् । नाप्येकाकी सन्नेकस्याः प्रतिक्रमणादिकं कुर्यात् । येन येन जुगुप्सा भवेत् तत्सर्वं त्याज्यमिति ॥ २६२॥
पंचमव्रतप्रपंच नार्थमाह
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लेना चोरी है । उस चोरी का त्याग करना यह अचौर्य महाव्रत है ।
चतुर्थव्रत का स्वरूप निरूपण करते हैं
गाथार्थ - अचेतन, देव, मनुष्य और तिर्यंच इन सम्बन्धी स्त्रियों से होने वाला चार प्रकार का जो मैथुन है, प्रयत्नचित्त वाले मुनि निश्चित रूप से, नित्य ही मनवचनकाय से उसका सेवन नहीं करते हैं ॥२६२॥
आचारवृत्ति - चित्र, लेप, पुस्त, भांड, शैल-बंध आदि के बने हुए स्त्री रूप अचेतन हैं । अर्थात् वस्त्र, कागज, दीवाल आदि पर बने हुए स्त्रियों के चित्र, लेप से निर्मित स्त्रियों की मूर्तियाँ, सोने- पीतल आदि धातु तथा पाषाण आदि से निर्मित मूर्तियाँ या पत्थर पर उकेरे गये स्त्रियों के आकार ये सब अचेतन स्त्रीरूप हैं । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी देवों की देवांगनाएँ देवस्त्री हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इनकी स्त्रियाँ मनुष्यस्त्री हैं और घोड़ी, गाय, भैंस आदि तिच तिर्यंचस्त्री हैं। इन चार प्रकार की स्त्रियों से उत्पन्न हुआ जो मैथुन है अर्थात् राग के उद्र ेक से होनेवाली जो कामसेवन की अभिलाषा है, प्रयत्नमना मुनि नित्य ही मन-वचन-काय और कृत-कारित अनुमोदना से (अर्थात् ३ x ३ = ६ नव कोटि से) निश्चित ही इस मैथुन का सेवन नहीं करते हैं ।
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तात्पर्य यह है कि स्वाध्याय में तत्पर हुए मुनि लोक - व्यापार से रहित होते हुए इन सभी स्त्रियों को माता, पुत्री और बहिन के समान समझें। एकाकी मुनि इन स्त्रियों के साथ एकान्त में नहीं रहे, न मार्ग में गमन करे और न एकान्त में इनके साथ किंचित् ही विचारविमर्श करे । एकाकी हुआ एक आर्यिका के साथ प्रतिक्रमण आदि भी नहीं करे। कहने का सार यही है कि जिस-जिस व्यवहार से निन्दा होवे वह सब व्यवहार छोड़ देना चाहिए। यह चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत हैं ।
पाँचों व्रत का स्वरूप कहते हैं
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