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२४४]
मूलाचारे
परपीडाकरं वचनं नो वदेत् । यत एप मषावाद: प्रत्ययघाती भवतीति न कस्यापि विश्वासस्थानं जायते। अतो हास्यात्, क्रोधात, भयाल्लोभाद्वा परपीडाकरं वस्तुयाथात्म्यविपरीतप्रतिपादकं वचनं मनसा न चिन्तयेत, ताल्वादिव्यापारण नोच्चारयेत्, कायेन नानुष्ठापयेदिति ॥२६॥
अस्तेयव्रतस्वरूपनिरूपणायाह
गामे णगरे रणे थूलं सचित्त बह सपडिवक्खं।
तिविहेण वज्जिदव्वं अदिण्णगहणं च तण्णिच्चं ॥२६१॥
ग्रामो वृत्यावृतः । नगरं चतुर्गोपुरोभासि शालं । अरण्य महाटवीगहनं। उपलक्षणमात्रमेतत् । तेन ग्रामे, नगर, पत्तने, अरण्ये, पथि, खले, मटवे, खेटे, कर्वटे, संवाहने, द्रोणमुखे, सागरे, द्वीपे, पर्वते, नद्यां वेत्येवमाद्यन्येष्वपि प्रदेशेषु स्थूलं सूक्ष्म, सचित्तमचित्त, बहु स्तोकं वा सप्रतिपक्षं द्रव्यं सुवर्णादिकं धनधान्यं वा द्विपदचतुष्पदजातं वा कांस्यवस्त्राभरणादिकं वा पुस्तिकाकपलिकानखरदनपिच्छिकादिकं वा, नष्टं वा विस्मृतं पतितं स्थापितं परसंगहीतं त्रिविधेन मनोवाक्कायः कृतकारितानुमतर्वादत्तग्रहणं नित्यं तत्सर्व वजितव्यं । अन्य
रूप त्रिकाल में भी पर-पीड़ा उत्पन्न करनेवाले तथा वस्तु के यथावत् स्वरूप से विपरीत प्रतिपादक वचनों को मन में भी नहीं लावे, तालु आदि व्यापार से उनका उच्चारण नहीं करे और काय से उन असत्य वचनों का अनुष्ठान नहीं करे । अर्थात् सदैव मन-वचन-काय पूर्णक असत्य बोलनेवाला सर्वत्र विश्वास का पात्र नहीं रह जाता। यह द्वितीय महाव्रत हुआ।
अचौर्यव्रत का स्वरूप-निरूपण करने हेतु कहते हैं -
गाथार्थ-ग्राम में, नगर में तथा अरण्य में जो भी स्थूल, सचित्त और बहुत तथा इनसे प्रतिपक्ष सूक्ष्म, अचित्त और अल्प वस्तु है, बिना दिए हुए उसके ग्रहण करने रूप उसका सर्वथा ही मन-वचन-कायपूर्वक त्याग करना चाहिए ।।२६१॥
प्राचारवृत्ति-बाड़ से वेष्टित को ग्राम कहते हैं । चार गोपुरवाल परकाट से सहित को नगर कहते हैं। महाअटवी को अरण्य कहते हैं। ये उपलक्षण मात्र हैं। इससे ग्राम, नगर, पत्तन, अरण्य, मार्ग, खलिहान, मटम्ब, खेट, कर्वट, संवाहन, द्रोणमुख, सागर, द्वीप, पर्वत और नदी तथा अन्य और भी जो कोई प्रदेश-स्थान हैं उन सब में जो भी वस्तु है वह चाहे सूक्ष्म हो या स्यूल, सचित्त हो या अचित्त, बहुत हो या थोड़ी, अथवा सुवर्ण आदि द्रव्य हो या धनधान्य हो या द्विपद-दासी, दास, चतुष्पद-गौ, भैस आदि हों, कांस्य के वर्तन आदि या वस्त्र आभरण आदि हों; या पुस्तक, कपलिका–कमण्डलु, नखकतरनी हों, या पिच्छिका आदि हों, इनमें से कोई वस्तु उन स्थानों में नष्ट हुई-किसी की खो गई हो, भूल से रह गई हो, किसी की गिर गई हो या किसी ने रखी हो या किसी अन्य के द्वारा संग्रहीत हो-मन-वचन-काय से और कृत-कारित-अनुमोदना से इनमें से बिना दी हुई किसी भी वस्तु का जो ग्रहण है वह चोरी है । उसका सर्वथा ही त्याग करना चाहिए। अन्य भी जो कुछ इसी प्रकार का धन आदि, जो कि विरोध का कारण हो, उसकी भी इच्छा नहीं करना चाहिए; क्योंकि वह सब बिना दिया हुआ धनादि चोरी स्वरूप है । तात्पर्य यह है कि किसी भी स्थानमें कोई भी वस्तु कैसी भी क्यों न हो यदि वह उसके स्वामी द्वारा दी हुई नहीं है तो उसको
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