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पंचाचाराधिकारः ]
प्रामाण्याद्वचनस्य प्रामाण्यं वर्णिता व्याख्याता मया । तच्चा - तत्त्वभूताः, जिनमतानुसारेण मयानुवर्णिता इत्यर्थः । एत्थभवे - एतेषु पदार्थेषु भवेत् यस्थ शंका स जीवो दर्शनघात्येष मिथ्यादृष्टिः । अथवा शंका सन्दिग्धाभिप्राया सैषा दर्शनघातिनी स्यात् ॥२४७॥
किमेते पदार्था नित्या आहोस्विदनित्याः, किं सन्त आहोस्विदविद्यमाना:, यथेते वर्णिता एतैरन्यैरपि बुद्धकणादाक्षपादादिभिश्च वर्णिता न ज्ञायन्ते के सत्या इति संशयो दर्शनविनाशहेतुरिति शंकां प्रतिपाद्याकांक्षां निरूपयन्नाह -
तिविहा य होइ कंखा इह परलोए तथा कुधम्मे य । तिविहं पि जो ण कुज्जा दंसणसुद्धीमुवगदो सो ॥ २४६ ॥
उन्हीं का यहाँ व्याख्यान किया गया है । इससे क्या समझना ? वक्ता की प्रमाणता से ही वचनों में प्रमाणता मानी जाती है । अर्थात् जिनोपदिष्ट कहने से यह अभिप्राय निकलता है कि अर्हन्त भगवान् वक्ता हैं, वे प्रमाण हैं अतएव उनके वचन भी प्रामाणिक हैं । अभिप्राय यही है कि जिन मत के अनुसार ही मैंने इन नव पदार्थों का वर्णन किया है, स्वरुचि से नहीं । इन पदार्थों में जिस जीव को 'यह ऐसा है या नहीं' ऐसी शंका हो जावे वह जीव सम्यग्दर्शन का घात करने वाला मिथ्यादृष्टि हो जाता है । अथवा संदिग्ध अभिप्राय को भी शंका कहते हैं सो यह भी दर्शन का घात करनेवाला है ।
क्या ये पदार्थ नित्य हैं अथवा अनित्य ? क्या ये विद्यमान हैं या अविद्यमान ? जैसे ये नव पदार्थ यहाँ बताये गये हैं वैसे ही अन्य बुद्ध, कणाद ऋषि, आचार्य अक्षपाद आदि ने भी वर्णित किये हैं । पुनः समझ में नहीं आता है कि कौन से सत्य हैं और कौन से असत्य हैं। इस प्रकार का जो संशय है वह सम्यग्दर्शन के विनाश का कारण है ऐसा समझना । इस शंका से रहित साधु निःशंकित शुद्धि को धारण करनेवाले होते हैं ।
शंका का स्वरूप बताकर अब आकांक्षा का निरूपण करते हैं
गाथार्थ - इह लोक में, परलोक में तथा कुधर्म में आकांक्षा होने से यह तीन प्रकार की होती है । जो तीन प्रकार को भी आकांक्षा नहीं करता है वह दर्शन की शुद्धि को प्राप्त हुआ है ॥ २४६ ॥ *
*निम्नलिखित गाथाएँ फलटन से प्रकाशित में अधिक हैं-
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अरहंत सिद्धसाहूसुबभत्ती धम्मम्हि जा हि खलु चेट्ठा । अणुगमणं य गुरुणं पत्थरागोति उच्चदि सो ॥
अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, साधु और श्रुत इनमें भक्ति रखना; इनके गुणों में प्रेम करना, धर्म मेंव्रतादिकों में उत्साह रखना तथा गुरुओं का स्वागत करना, उनके पीछे-पीछे नम्र होकर चलना, अंजलि जोड़ना इत्यादि कार्यों को प्रशस्त राग कहते हैं । [ यह गाथा 'पञ्चास्तिकाय' में है ]
प्रशस्त राग पुण्यसंचय का प्रधान कारण है
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