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[मूलाचारे
गोपुच्छरुपायेन' च सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोभिः कृतानि कर्माणि पच्यन्ते विनश्यन्ति ध्वस्तीभवन्तीत्यर्थः ।।२४६॥
मोक्षपदार्थं निरूपयन्नाह
रागी बंधइ कम्मं मुच्चइ जीवो विरागसंपप्णो।
एसो जिणोवएसो समासदो बंधमोक्खाणं ॥२४७॥
अत्रापि मोचको मोक्षो मोक्षकारणं च प्रतिपादयति बन्धस्य च बन्धपूर्वकत्वान्मोक्षस्य। रागी बध्नाति कर्माणि वीतराग: पुनर्जीवो मुच्यते । एष जिनोपदेशः आगमः समासतः संक्षेपात कयोर्बन्धमोक्षयोः संक्षेपेणायमुपदेशो जिनस्य, रागी बध्नाति कर्माणि वैराग्यं संप्राप्तः पुनर्मुच्यते इति ॥२४८।।
अथ पदार्थान् संक्षेपयन् प्रकृतेन च योजयन्नाह---
णव य पदत्था एदे जिणदिट्ठा वण्णिदा मए तच्चा।
एत्थ भवे जा संका दंसणघादी हवदि एसो ॥२४॥ अथ का शंका नाम, एते ये व्याख्याता नवपदार्था जिनोपदिष्टाः, अनेन किमुक्तं भवति वक्तुः
भावार्थ-योग्य काल में जैसे आम, केला आदि पकते हैं तथा उन्हें पाल से असमय में भी पका लिया जाता है। उसी प्रकार से जीव के द्वारा बाँधे गये कर्म समय पर उदय में आकर फल देकर झड़ जाते हैं, यह विपाकजा निर्जरा है; और समय के पहले हो रत्नत्रय और तपश्चरणरूप प्रयोग के द्वारा उन्हें निर्जीर्ण कर दिया जाता है यह अविपाकजा निर्जरा है। इसके अनौपक्रमिक और औपक्रमिक ऐसे भी सार्थक नाम होते हैं।
अब मोक्ष पदार्थ का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-रागी कर्मों को बाँधता है और विरागसंपन्न जीव कर्मों से छूटता है। बन्ध और मोक्ष के विषय में संक्षेप से यही जिनेन्द्र देव का उपदेश है ॥२४७॥
__ आचारवत्ति यहाँ पर भी मोचक, मोक्ष और मोक्ष के कारण इन तीनों का प्रतिपादन करते हैं। और बन्ध का भी व्याख्यान करते हैं क्योंकि बन्धपूर्वक ही मोक्ष होता है। रागी जीव कर्मों को बाँधता रहता है जबकि वीतरागी जीव कर्मों से छूट जाता है । बन्ध और मोक्ष के कथन में संक्षेप से यही जिनेन्द्र देव का उपदेश-आगम है । तात्पर्य यही है कि जिनेन्द्र देव का संक्षेप में यहो उपदेश है कि राग सहित जीव ही कर्मों का बन्ध करता है तथा वैराग्य से सहित हुआ जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
अब पदार्थों के कथन को संकुचित करते हुए अपने प्रकृत विषय निःशंकित अंग को कहते हैं
गाथार्थ-जिनेन्द्र देव द्वारा कथित जो ये नव पदार्थ हैं मैंने उनका वास्तविक वर्णन किया है। उसमें जो शंका हो तो यह दर्शन का घात करनेवाली हो जाती है ॥२४८॥
प्राचारवृत्ति-शंका किसे कहते हैं ? जिनेन्द्रदेव के द्वारा कथित जो नव पदार्थ हैं
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