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२३८]
[मूलाचार पदविभागतः पृथक्पृथक्कालशुद्धि व्याख्याय विनयशुद्धयर्थमाह
पलियंकणिसेज्जगदो पडिलेहिय अंजलीकदपणामो।
सुत्तत्थजोगजुत्तो पढिदव्वो प्रादसत्तीए ॥२८१॥
पर्य केण निषद्यां गत उपविष्टः पर्यकनिषद्यागतः पर्यकेन वीरासनादिभिर्वा सम्यग्विधानेनोपविष्टस्तेन, प्रतिलिख्य चक्षुषा पिच्छिकया शुद्धजलेन च पुस्तकं भूमिहस्तपादादिकं च सम्मायं । अञ्जलिना कृतः प्रणामो येनासावञ्जलिकृतप्रणामस्तेन करमुकुलाकितचक्षुषा सूत्रार्थसंयोगः सम्पर्कस्तेन युक्तः समन्वितः सूत्रार्थयोगयुक्तोऽङ्गादिग्रन्थः पठितव्योऽध्येतव्यः । आत्मशक्त्या सूत्रार्थाव्यभिचारेण शुद्धोपयोगेन शक्तिमनवगुह्य यत्नेन जिनोक्तं सूत्रमर्थयुक्तं पठनीयमिति ॥२१॥
उपधानशुद्धयर्थमाह
प्रायविल णिव्वियडी अण्णं वा होदि जस्स कादव्वं । तं तस्स करेमाणो उपहाणजुदो हवदि एसो॥२८२॥
पदविभाग से--एक-एक रूप से पृथक्-पृथक् कालशुद्धि को कहकर अब विनयशुद्धि को कहते हैं
__ गाथार्थ-पर्यंकासन से बैठकर पिच्छिका से प्रतिलेखन करके अंजलि जोड़कर प्रणाम पूर्वक सूत्र और उसके अर्थ में उपयोग लगाते हुए अपनी शक्ति के अनुसार पढ़ना चाहिए ॥१८१॥
आचारवृत्ति-मुनि पर्यकासन से अथवा वीरासन आदि से सम्यक् प्रकार की विधि से बैठे कर शुद्ध जल से हाथ-पैर आदि धोकर तथा चक्षु से अच्छी तरह निरीक्षण करके और पिच्छिका से भूमि को, हाथ-पैर आदि को और पुस्तक को परिमाजित करके मुकुलित हाथ बनाकर अंजलि जोड़कर प्रणाम करके सूत्र और अर्थ के संयोग युक्त अंग आदि ग्रन्थों को पढ़ना चाहिए । अपनी शक्ति के अनुसार सूत्र और अर्थ में व्यभिचार न करते हुए अर्थात् सूत्र के अनुसार उसका अर्थ समझते हुए शुद्धोपयोग पूर्वक अर्थात् उपयोग को निर्मल बनाकर और शक्ति को न छिपाकर प्रयत्न पूर्वक जिनेन्द्र देव द्वारा कथित सूत्र को अर्थ सहित पढ़ना चाहिए। यह दूसरी विनयशुद्धि हुई है।
अब उपधान का लक्षण कहते हैं
गाथार्थ-आवाम्ल निविकृति या अन्य भी कुछ नियम जिस स्वाध्याय के लिए करना होता है उसके लिए उस नियम को कहते हुए ये मुनि उपधान आचार सहित होते हैं। ।२८२॥ फलटन से प्रकाशित प्रति में निम्नलिखित दो गाथाएँ और हैं
सुत्तत्थं जप्पंतो अत्यविसद्ध च तदुभयविसुद्ध।
पयदेण य वाचतो णाणविणीदो हवदि एसो॥
अर्थ-अंगपूर्वादि सूत्रों को शुद्ध बोलते हुए उसके अर्थ को भी शुद्ध समझते हए तथा सूत्र और अर्थ दोनों को शुद्ध पढ़ते हुए प्रयत्नपूर्वक जो मुनि वाचना स्वाध्याय करते हैं वे ज्ञानविनीत होते हैं।
विषयेण सुदमधीदं जदि विपमादेण होदि विस्सरिद।
तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहदि । यह गाथा आगे आठों ज्ञानाचारों के अनन्तर क्र. २८६ की है।
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