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पंचराचाराधिकारः]
[२४१ व्यंजनार्थोभयशुद्धिस्वरूपार्थमाह
विजणसुद्ध सुत्तं अत्थविसुद्ध च तदुभयविसुद्धं ।
पयदेण य जप्पंतो णाणविसुद्धो हवइ एसो॥२८॥ व्यञ्जनशुद्ध, अक्षरशुद्ध पदवाक्यशुद्ध च दृष्टव्यं देशामर्षकत्वात्सूत्राणां । अर्थविशुद्ध-अर्थसहितं । तदुभयविशुद्ध च व्यंजनार्थसहितं सूत्रमिति सम्बन्धः । प्रयत्नेन च व्याकरणद्वारेणोपदेशेन वा जल्पन पठन् प्रतिपादयन् वा ज्ञानविशुद्धो भवत्येषः । सिद्धांतादीनक्षरविशुद्धानर्थशुद्धान् ग्रंथार्थशुद्धांश्च पठन् वाचयन् प्रतिपादयंश्च ज्ञानविशुद्धो भवत्येषः । अक्षरादिव्यत्ययं न करोति यथा व्याकरणं यथोपदेशं पठतीति ॥२८॥
किमर्थं विनयः क्रियत इत्याह
व्यंजनशुद्धि, अर्थशुद्धि और तदुभय शुद्धि का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-व्यंजन से शुद्ध, अर्थ से विशुद्ध और इन उभय से विशुद्ध सूत्र को प्रयत्न पूर्वक पढ़ते हुए यह मुनि ज्ञान से विशुद्ध होता है ॥२८५॥
प्राचारवृत्ति-व्यंजनशुद्ध-शब्द से अक्षरों से शुद्धि । पद और वाक्यों से शुद्धि को भी लेना चाहिए, क्योंकि सूत्र देशामर्षक होते हैं अर्थात् सूत्र में एक अवयव का उल्लेख अनेक अवयवों के उल्लेख के लिए उपलक्षण रूप रहता है । अतः व्यंजनशुद्ध शब्द से अक्षर, पद और वाक्यों की शुद्धि को भी समझना चाहिए। उन सूत्रों का अर्थ शुद्ध समझना अर्थशुद्ध है । इन दोनों को शुद्ध पढ़ना तदुभयशद्ध है। सूत्र का सम्बन्ध तीनों के साथ करना चाहिए अर्थात सत्रों को अक्षर मात्रादिक से शुद्ध पढ़ना, उन का ठीक ठीक अर्थ समझना और सूत्र तथा अर्थ दोनों को सही पढ़ना । प्रयत्नपूर्वक व्याकरण के अनुसार अथवा गुरु के उपदेश के अनुसार इन सूत्र, अर्थ और उभय को पढ़ते हुए अथवा अन्य को वैसा प्रतिपादन करते हुए मुनि ज्ञान में विशुद्धि को प्राप्त कर लेता है । अभिप्राय यह हुआ कि सिद्धात आदि ग्रन्थों को अक्षर से शुद्ध, अर्थ से शुद्ध और ग्रन्थ तथा अर्थ इन दोनों से शुद्ध पढ़ता हुआ, उनकी वाचना करता हुआ और उनको प्रतिपादित करता हुआ मुनि ज्ञानविशुद्ध हो जाता है। वह अक्षर आदि का विपर्यय नहीं करता है, व्याकरण के अनुकूल और गुरु उपदेश के अनुकूल पढ़ता है। इस प्रकार से इन तीन शुद्धियों का अर्थात् छठी, सातवीं और आठवीं शुद्धियों का कथन किया गया है । यहाँ तक ज्ञानाचार के आठ भेद रूप आठ शुद्धियों का वर्णन हुआ ।
किसलिए ज्ञान किया जाता है ? सो ही बताते हैं*फलटन से प्रकाशित प्रति में यह अधिक है
तित्थयकहियं अत्थं गणहररचिदं यदीहि अणुचरिदं।
णिव्वाणहेदुभूदं सुदमहमखिलं पणिवदामि ॥
अर्थ-जो श्रुत तीर्थकर के द्वारा अर्थरूप से कथित है, गणधर देव क द्वारा द्वादशांगरूप से रचित है, और अन्य यतियों के द्वारा अनुचरित है अर्थात् परम्परा से कथित है और जो निर्वाण के लिए कारणभूत है ऐसे मम्पूर्ण-द्वादशांगमय श्रुत को मैं नमस्कार करता हूँ।
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