________________
पंचाचाराधिकार:]
[२३६ आचाम्लं सौवीरोदनादिकं, विकृतेनिर्गतं निर्विकृतं घृतदध्यादिविरहितोदनः, अन्यद्वा पक्वान्नादिकं यस्य शास्त्रस्य कर्तव्यमुपधानं सम्यक्सन्मानं तदुपधानं कुर्वाणस्तस्य शास्त्रस्योपधानयुक्तो भवत्येषः । साधुनावग्रहादिकं कृत्वा शास्त्रं सर्वं श्रोतव्यमिति तात्पर्य पूजादरश्च कृतो भवति ॥२२॥
बहुमानस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
सुत्तत्थं जप्पंतो वायंतो चावि णिज्जराहेदु।
प्रासादणं ण कुज्जा तेण किदं होदि बहुमाणं ॥२८३॥
अङ्गश्रुतादीनां सूत्रार्थं यथास्थितं तथैव जल्पन्नुच्चरन् पाठयन् वाचयंश्चापि प्रतिपादयंश्चाप्यन्यस्य निर्जराहेतोः कर्मक्षयनिमित्तं च आचार्यादीनां शास्त्रादीनागन्येषामपि आसादनं परिभवं न कुर्याद्गवितो न भवेत्तेन शास्त्रादीनां बहमानं पूजादिकं कृतं भवति । शास्त्रस्य गुरोरन्यस्य वा परिभवो न कर्तव्यः पूजावचनादिकं च वक्तव्यमिति तात्पर्यार्थः ॥२८३॥
अनिह्नवस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
11हैं।
प्राचारवृत्ति-सौवीर-कांजी के साथ भात आदि को आचाम्ल कहते हैं। जो विकृति से रहित है अर्थात् घी, दूध आदि से रहित भात निर्विकृति है । अथवा अन्य पके हुए अन्न आदि भी निविकृति हैं। अर्थात् जिस चावल या रोटी आदि में कोई रस-नमक, घी आदि या मसाला आदि कुछ भी नहीं डाला है वह भोजन निर्विकृति है। कोई एक शास्त्र के स्वाध्याय को प्रारम्भ करके उस शास्त्र के पूर्ण हुए पर्यन्त इन आचाम्ल या निर्विकृति आदि का आहार लेना अर्थात् इस ग्रन्थ के पूर्ण होने तक मेरा आचाम्ल भोजन का नियम है या अमुक रस का त्याग है इत्यादि नियम करना उपधान है। यह उस ग्रन्थ के लिए सम्यक सम्मान रूप है। ऐसा उपधान-नियम विशेष करके स्वाध्याय करते हए मुनि उस ग्रन्थ के विषय में उपधानशद्धि से युक्त: तात्पर्य यह है कि साधु को कुछ नियम आदि करके ग्रन्थ पढ़ने या सुनने चाहिए। इससे उस ग्रन्थ की पूजा और आदर होता है। यह तीसरी शुद्धि हुई।
अब बहुमान का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-निर्जरा के लिए सूत्र और उसके अर्थ को पढ़ते हुए तथा उनकी वाचना करते हुए भी आसादना नहीं करे। इससे बहुमान होता है ॥२८३॥
प्राचारवत्ति-मुनि निर्जरा के लिए कर्मों के क्षय हेतु-अंग, पूर्व आदि के सूत्र और अर्थ को, जो जैसे व्यवस्थित हैं वैसे ही उनका उच्चारण करते हुए, पढ़ाते हुए, वाचना करते हुए और अन्यों का भी प्रतिपादन करते हुए आचार्य आदि की, शास्त्रों की और अन्य मुनियों की भी आसादना (तिरस्कार) नहीं करे अर्थात् गर्विष्ठ नहीं होवे। इससे शास्त्रादि का बहुमान होता है, पूजादिक करना होता है। तात्पर्य यह हुआ कि शास्त्र का, गुरु का अथवा अन्य किसी मुनि या आचार्य का तिरस्कार नहीं करना चाहिए बल्कि उनके प्रति पूजा बहुमान आदि सूचक वचन बोलना चाहिए। यह बहुमानशुद्धि चौथी है।
अब अनिह्नव का स्वरूप बतलाते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org