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[मूलाचारे दंसणचरणो एसो णाणाचारं च वोच्छमट्टविहं॥
अट्ठविहकम्ममुक्को जेण य जीवो लहइ सिद्धि ॥२६६॥
दर्शनाचार एष मया वर्णितः समासेनेऽत ऊर्ध्व ज्ञानाचारं वक्ष्ये कथयिष्याम्यष्टविधं येन ज्ञानाचारेणाष्टविधकर्ममुक्तो जीवो लभते सिद्धि, ज्ञानभावनया कर्मक्षयपूर्विका सिद्धिरिति भावार्थः ॥२६६॥
किं ज्ञानं यस्याचारः कथ्यते इति चेदित्याह
जेण तच्चं विबुज्झज्ज जेण चित्त णिरुज्झदि ।
जेण अत्ता विसुज्झज्ज तं णाणं जिणसासणे ॥२६७..
येन तत्त्वं वस्तुयाथात्म्यं विबुध्यते परिच्छिद्यते येन च चित्त मनोव्यापारो निरुद ध्यते आत्मवशं क्रियते येन चात्मा जीवो विशुद्धयते वीतरागः क्रियते परिच्छिद्यते तज्ज्ञानं जिनशासने प्रमाणं मोक्षप्रापणाभ्युपायं संशयविपर्ययानध्यवसायाकिञ्चित्करविपरीतं प्रत्यक्षं परोक्षच । तत्र प्रत्यक्षं द्विप्रकारं मुख्यममुख्यं च, मुख्य द्विविधं देशमुख्यं परमार्थमुख्यं, देशमुख्यमवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं च, परमार्थमुख्यं केवलज्ञानं, सर्वद्रव्यपर्यायपरिच्छेदात्मकं । अमुख्यं प्रत्यक्षेन्द्रियविषयसन्निपातानन्तरसमुद्भ तसविकल्पकमीषत्प्रत्यक्षभूतं । परोक्षश्रतानमानार्थापत्तितर्कोपमानादिभेदेनानेकप्रकारं,श्रुतं मतिपूर्वक इन्द्रियमनोविषयादन्यार्थविज्ञानं यथाग्निशब्दात खर्पर
गाथार्थ-यह दर्शनाचार हआ। अब आठ प्रकार का ज्ञानाचार कहेंगे जिससे जीव आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त होकर सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ॥२६६॥
आचारवृत्ति-मैंने यह दर्शनाचार का वर्णन किया है। अब इसके बाद संक्षेप में आठ प्रकार का ज्ञानाचार कहूँगा जिसके माहात्म्य से यह जीव आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त होकर सिद्धिपद को प्राप्त कर लेता है । अर्थात् ज्ञान की भावना से कर्मक्षय पूर्वक सिद्धि होती है ऐसा समझना।
वह ज्ञान क्या है कि जिसका आचार आप कहेंगे ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं
गाथार्थ-जिससे तत्त्व का बोध होता है, जिससे मन का निरोध होता है, जिससे आत्मा शुद्ध होता है जिन शासन में उसका नाम ज्ञान है ॥२६७॥
__ प्राचारवृत्ति-जिसके द्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है, जिसके द्वारा मन का व्यापार रोका जाता है अर्थात् मन अपने वश में किया जाता है और जिसके द्वारा आत्मा शुद्ध हो जाती है, जीव वीतराग हो जाता है, वह ज्ञान जिनशासन में प्रमाण है, अर्थात् वही ज्ञान मोक्ष को प्राप्त कराने के लिए उपायभूत है। वह ज्ञान संशय, विपर्यय, अनध्वसाय और अकिंचित्कर से रहित है। उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद हैं । उसमें मुख्य और अमुख्य की अपेक्षा प्रत्यक्ष के भेद हैं। मुख्य प्रत्यक्ष भी देश मुख्य और परमार्थ मुख्य से दो भेदरूप है। देश मख्य के अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान ये दो भेद हैं। केवलज्ञान परमार्थ मुख्य है। वह सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को जाननेवाला है। इन्द्रिय और विषयों के सन्निपात के अनन्तर उत्पन्न हआ जो सविकल्पक ज्ञान है वह अमुख्य प्रत्यक्ष है, यह ईषत् प्रत्यक्षभूत है।
परोक्ष प्रमाण भी आगम, अनुमान, अर्थापत्ति, तर्क, उपमान आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। श्रुतज्ञान, मतिज्ञान पूर्वक होता है । वह इन्द्रिय और मन के विषय से भिन्न अन्य अर्थ के विज्ञान रूप है, जैसे अग्नि शब्द से खर्पर का विज्ञान होता है।
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