________________
२२८]
[मूलाचारे
तावद्दिनं प्रति दिन प्रति अंगुलस्य पंचदशभागो वृद्धि गच्छति ततो हानिम्। अत्र त्रैराशिककमेण हानिवृद्धी साधितव्ये । अपराल स्वाध्यायप्रारम्भकालस्य रात्रौ स्वाध्यायकालस्य च कालपरिमाणं न जातं तज्ज्ञात्वा वक्तव्यम् । मध्याह्नादुपरिघटिकाद्वये स्वाध्यायो ग्राहयः, तथा रात्रौ प्रथमघटिकाद्वये सर्वासू संध्यादावन्ते च घटिकाद्वये वर्जयित्वा स्वाध्यायो ग्राहयो हातव्यश्चेति ।।२७२॥ दिग्विभागशुद्धयर्थमाह
णवसत्तपंचगाहापरिमाणं दिसिविभागसोहोए।
पुव्वण्हे अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए ॥२७३॥ दिशां विभागो दिग्विभागस्तस्य' शुद्धिरुल्कापातादिरहितत्वं दिग्विभागशुद्धेनिमित्तं कायोत्सर्गमा
पुनः पौष सुदी पूर्णिमा के बाद से लेकर महीने-महीने में छाया दो-दो अंगुल तब तक घटती जाती है जब तक कि आषाढ़ मास में वह दो पादप्रमाण नहीं हो जावे।
कर्कट संक्रांति के प्रथम दिन से प्रारम्भ करके धनुःसंक्रांति के अन्तिम दिनपर्यन्त तक दिन प्रति-दिन अंगुल के पन्द्रहवें भाग प्रमाण छाया बढ़ती जाती है। पुनः आगे इतनी-इतनी ही घटती जाती है। यहाँ पर त्रैराशिक के क्रम से हानि और वृद्धि को निकाल लेना चाहिए।
__ अपराह्न काल के स्वाध्याय का प्रारम्भकाल और रात्रि में स्वाध्याय के काल का प्रमाण नहीं मालूम हुआ उसको जानकर कहना चाहिए । अर्थात् मध्याह्न काल के ऊपर दो घड़ी हो जाने पर अपराह्न स्वाध्याय ग्रहण करना चाहिए, तथा रात्रि में सूर्यास्त के बाद दो घड़ी बीत जाने पर पूर्वरात्रिक स्वाध्याय करना चाहिए । अर्थात् सभी संध्याओं के आदि और अन्त में दो-दो घड़ी छोड़कर स्वाध्याय ग्रहण करना चाहिए और समाप्त करना चाहिए।
भावार्थ-आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल सूर्योदय के बाद मध्याह्न होने के कुछ पहले जब जंघाछाया दोपाद (१२ अंगुल) प्रमाण रहती है तब पूर्वाह्न स्वाध्याय निष्ठापन का काल है । पुनः श्रावण के अन्तिम दिन १४ अंगुल, भाद्र पद के अन्तिम दिन १६ अंगुल, आश्विन के अन्तिम दिन १८ अंगुल, कार्तिक को पूर्णिमा को २० अंगुल, मगसिर की पूर्णिमा को २२ अंगुल और पौष की पूर्णिमा को चार पाद अर्थात् २४ अंगुल हो जाती है। तब स्वाध्याय निष्ठापन का काल होता है। आगे पुनः दो-दो अंगुल घटाइए---माघ के अन्तिम दिन २२ अंगुल, फाल्गुन की पूर्णिमा को २० अंगुल, चैत्र की पूर्णिमा को १८ अंगुल, वैशाख की पूर्णिमा को १६ अंगुल, ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन १४ अंगुल, आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन दो पाद अर्थात् १२ अंगुल जंघाछाया रहे तब पूर्वाह्न स्वाध्याय निष्ठापन का काल होता है।
दिग्विभाग की शुद्धि के लिए कहते हैं----
गाथार्थ----पूर्वाह्न, अपराह्न और प्रदोषकाल के स्वाध्याय करने में दिशाओं के विभाग की शुद्धि के लिए नव, सात और पाँच बार गाथा प्रमाण णमोकार मन्त्र को पढ़े।
आचारवृत्ति----दिशाओं का विभाग दिग्विभाग है । उसकी शुद्धि अर्थात् दिशाओं का उल्कापात आदि से रहित होना । पूर्वाह्न काल के स्वाध्याय के विषय में इस दिग्विभाग
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org