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मूलाचारे
चातुर्वर्णे ऋष्यायिकाश्रावकश्राविकासमूहे संघे चतुर्गतिसंसारनिस्तरणभूते नरकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिषु यत्रांसरणं भ्रमणं तस्य विनाशहेतौ वालाल्यं यथा नवप्रसूता गौर्वत्से स्नेहं करोति । एवं वात्सल्यं कुर्वन् दर्शनविशुद्धो भवति। वात्सल्यं च कायिक-वाचिक-मानसिकानुष्ठानः सर्वप्रयत्लेनोपकरणोषधाहारावकाशशास्त्रादिदान: संगे कर्तव्यमिति ।।२६३।।
प्रभावनास्वरूपप्रतिपादनार्थमाह
धम्मकहाकहणण य बाहिरजोगेहिं चावि 'णवज्जेहिं ।
धम्मो पहाविदव्वो जोवेसु दयाणुकंपाए ॥२६४॥
धर्मकथाकथनेन निषष्टिशलाकापुरुषवरिताख्यानेन सिद्धान्ततर्कव्याकरणादिव्याख्यानेन धर्मपापादिस्वरूपकथनेन वा बाह्ययोगैश्चापि अभ्रावकाशातापनवृक्षमूलानशनाद्यनव_हिंसादिदोषरहितैर्धर्मः प्रभावयि
प्राचारवृत्ति-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों में जो संसरण है, भ्रमण है उसी का नाम संसार है । ऐसे संसार के नाश हेतु ऋषि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका के समूहरूप चतुर्विध संघ में वात्सल्य करना चाहिए। जैसे नवीन प्रसूता गौ अपने बछडे में स्नेह करतो है उसी तरह वात्सल्य को करते हए मनि दर्शनशद्धि सहित । अर्थात् कायिक, वाचिक और मानसिक अनुष्ठानों के द्वारा सम्पूर्ण प्रयत्न से संघ में उपकरण, ओषधि, आहार, आवास-स्थान और शास्त्र आदि का दान करके वात्सल्य करना चाहिए।
भावार्थ-जैसे गाय का अपने बछड़े हर सहज प्रेम होता है वैसे ही चतुर्विध संघ के प्रति अकृत्रिम प्रम होना वात्सल्य है । यह धर्मात्माओं का धर्मात्माओं के प्रति होता है। ऐसे वात्सल्य अंगधारी मुनि अपने सम्यक्त्व को निर्दोष करते हैं।
प्रभावना का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
गाथार्थ-धर्म कथाओं के कहने से, निर्दोष बाह्य योगों से और जीवों में दया की अनुकम्पा से धर्म की प्रभावना करना चाहिए ।।२६४॥
आचारवत्ति-चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नव बलदेव, नव वासुदेव और नव प्रतिवासुदेव ये त्रेसठ शलाकापुरुष हैं। इनके चरित्र का आख्यान-वर्णन करना, सिद्धान्त, तर्क, व्याकरण आदि का व्याख्यान करना, अथवा धर्म और पाप आदि के स्वरूप का कथन करना यह धर्मकया है। शीत ऋतु में खुले मैदान में ध्यान करना अभ्रावकाश है । ग्रीष्म ऋतु में पर्वत की चोटी पर ध्यान करना आतापन है। वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे ध्यान करना वृक्षमूल है।
जीव दया की अनुकम्पा से युक्त होकर धर्म कथाओं के कहने से, इन बाह्य योगों से, निर्दोष-हिंसा आदि दोषरहित अनशन-उपवास आदि तपश्चरणों से धर्म की प्रभावना करना चाहिए अर्थात् जिनमार्ग को उद्योतित करना चाहिए। अथवा जीवदया रूप अनुकम्पा से भी धर्म को प्रभावना करना चाहिए। तथा 'अपि' शब्द से सूचित होता है कि परवादियों से
१ कवि अण्णवज्जो।
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