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पंचाचाराधिकारः]
[२२५ पठनादिकं साहचर्यात् उपधानाचारे (र:)। बहुमान पूजासत्कारादिकेन पाठादिकं बहुमानाचारः। तथैवानिह्नवनं यस्मात्पठितं श्रुतं स एव प्रकाशनीयः यद्वा पठित्वा श्रुत्वा ज्ञानी सञ्जातस्तदेव श्रुतं ख्यापनीयमिति अनिह्नवाचारः । व्यजनं-वर्णपदवाक्यशुद्धिः, व्याकरणोपदेशेन वा तथा पाठादियंजनाचारः । अत्थअर्थोऽभिधेयोऽनेकान्तात्मकस्तेन सह पाठादि अर्थाचारः । शब्दार्थशुद्धया पाठादि तदुभयाचारः। सर्वत्र साहचर्यात् कार्य कारणाधुपचाराद्वाऽभेदः । कालादिशुद्धिभेदेन वा ज्ञानाचारोऽष्टविध एव, अधिकरणभेदेन वाधारस्य भेदः । प्रथमा विभक्तिः सप्तमी वा द्रष्टव्या ॥२६६।।
कालाचारप्रपंचप्रतिपादनार्थमाह--
पादोसियवेरत्तियगोसग्गियकालमेव गेण्हित्ता।
उभये कालह्मि पुणो सज्झाओ होदि कायव्वो ॥२७०॥
प्रकृष्टा दोषा रात्रिर्यस्मिन् काले स प्रदोषः कालः रात्रेः पूर्वभाग इत्यर्थः। तत्सामीप्याद्दिनपश्चिमभागोऽपि प्रदोष इत्युच्यते । ततः प्रदोषग्रहणेन द्वौ कालौ गहये ते। प्रदोष एव प्रादोषिकः । विगता रात्रिर्यस्मिन् काले सा विरात्री रात्रः पश्चिमभागः, द्विघटिकासहितार्धरात्रादूर्ध्वकालः, विरात्रिरेव वैरात्रिकः।
उपधान-आचार कह दिया है। बहुमान- पूजा सत्कार आदि के द्वारा पठन आदि करना बहुमान आचार है। उसी प्रकार से अनिह्नव अर्थात् जिससे शास्त्र पढ़ा है उसका ही नाम प्रकाशित करना चाहिए। अथवा जिस शास्त्र को पढ़कर और सुनकर ज्ञानी हुए हैं उसी शास्त्र का नाम बताना चाहिए यह अनिवाचार है । व्यंजन--वर्ण, पद और वाक्य की शुद्धि अथवा व्याकरण के उपदेश से वैसा ही शद्ध पाठ आदि करना व्यंजनाचार है। अर्थ-- अभिधेय अर्थात् वाच्य को अर्थ कहते हैं। वह अर्थ अनेकान्तात्मक है उसके साथ पठन आदि करना अर्थाचार है। शब्द और अर्थ की शुद्धि से पठन आदि करना उभयाचार है। सर्वत्र साहचर्य से अथवा कार्य में कारण आदि के उपचार से अभेद होने से इन्हीं काल आदि को ही आचार शब्द से कहा है।
ऐसा समझना कि कालादि की शुद्धि के भेद से ज्ञानाचार आठ प्रकार का ही है। अथवा अधिकरण के भेद से आचार में भेद हो गये हैं । काले, विनये आदि में प्रथमा या सप्तमी दोनों विभक्तियों का अर्थ किया जा सकता है। इस तरह कालाचार विनयाचार आदि ज्ञानाचार के भेद हैं। र अब कालाचार को विस्तार से प्रतिपादित करते हैं
गाथार्थ-प्रादोषिक, वैरात्रिक और गौसर्गिक काल को ही लेकर दोनों कालों में पुनः स्वाध्याय करना होता है ॥२७०॥
__ आचारवृत्ति-प्रकृष्टरूप दोषा अर्थात् रात्रि है जिस काल में वह प्रदोषकाल कहलाता है। अर्थात् रात्रि के पूर्व भाग को प्रदोष कहते हैं। उस प्रदोषकाल की समीपता से दिन का पश्चिम भाग भी प्रदोष कहा जाता है। इसलिए प्रदोष के ग्रहण करने से दो काल ग्रहण किए जाते हैं। प्रदोष ही प्रादोषिक कहलाता है। विगत--बीत गई है रात्रि जिस काल में वह विरात्रि है। १ क 'ति अनिह्नवेन पाठादि अनि ।
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