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पंचाचाराधिकारः।
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रिग्वेद-ऋग्वेदः । सामवेदः। वाग्-वाक्, ऋचः । अणुवाग--अनुवाक् कंडिकासमुदायः । अथवा वाक-ऋग्वेदप्रतिबद्धप्रायश्चित्तादिः, अनुवाक् मन्वादिस्मतयः । आदि शब्देन यजुर्वेदाथर्वणादयः परिगृपन्ते । वेदसत्थाई-वेदशास्त्राणि हिंसोपदेशकानि अग्न्यादिकार्यप्रतिपादकानि । गृहयसूत्रारण्यगर्भाधानपंसवननामकर्मान्नप्राशनचौलोपनयन व्रतबन्धनसौत्रामण्यादिप्रतिपादकानि नन्द केशर गौतमयाज्ञवल्क्यपिप्पलादवररुचिनारदवृहस्पतिशुक्रबुद्धा दिप्रणीतानि तुच्छानि धर्मरहितानि निरर्थकानीति यदि न गृह्णाति [यदि गणाति वैदिकाचारमूढो भवत्येष इति ॥२५८।।
सामयिकमोहप्रतिपादनार्थमाह
रत्तवडचरगतावसपरिहत्ता'दीय अण्णपासंढा ।
संसारतारगत्ति य जदि गेण्हइ समयमूढो सो ॥२५॥
रक्तवड-रक्तपट: । चरग-चरकः । काजवाहेन कणभिक्षाहाराः, अथवा भिक्षावेलायां हस्तलेहनशीला उत्सिष्टाः कालमुखादयः । तावसा-तापसा: कन्दमूलफलाद्याहारा वनवासिनः जटाकौपीनादि
आचारवत्ति-ऋग्वेद, सामवेद, वाक्-ऋचाएँ, अनुवाक्-कंडिका का समूह। अथवा वाक् अर्थात् ऋग्वेद में कहे गये प्रायश्चित आदि तथा अनुवाक् अर्थात् मनु आदि ऋषियों द्वारा बनाये गये मनुस्मृति आदि । आदि शब्द से यजुर्वेद अथर्ववेद आदि का भी ग्रहण किया जाता है। हिंसा आदि के प्रतिपादक वेदशास्त्र, अग्नि-होम आदि कार्य के प्रतिपादक गह्यसूत्र, आरण्य, गर्भाधान, पुंसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, चौल-मुंडन, उपनयन, व्रतबन्धन, सौत्रामणि-यज्ञविशेष आदि के प्रतिपादक जो शास्त्र हैं तथा जो नंदि केश्वर, गौतम, याज्ञवल्क्य, पिप्पलाद, वररुचि, नारद, बृहस्पति, शुक्र ओर बुद्ध आदि के द्वारा प्रणीत हैं ये सब शास्त्र तुच्छ हैं-धर्मरहित, निरर्थक हैं । यदि कोई मुनि इनको ग्रहण करता है तो वह वैदिकाचारमूढ़ कहलाता है।
भावार्थ-ऋग्वेद आदि वेदों में हिंसा का उपदेश तथा परस्पर विरोधी एकान्त कथन है । ऐसे ही मनुस्मृति भी कुशास्त्र हैं । इनमें कहे आचरण को मानने वाला वैदिकाचारमूढ़ माना जाता है। वह अपने सम्यक्त्व का नाश कर देता है।
सामयिक मोह का प्रतिपादन करते हैं
गाथार्थ-रक्तवस्त्रवाले साधु, चरक, तापस, परिव्राजक आदि तथा अन्य भो पाखंडी साधु संसार से तारनेवाले हैं इस तरह यदि कोई ग्रहण करता है तो वह समयमढ़ होता है ॥२५॥
प्राचारवृनि-रक्तपट और चरक साधुओं का लक्षण पहले किया जा चुका है। अर्थात बौद्ध भिक्षुओं को रक्तपट और नैयायिक वैशेषिक साधुओं को चरक कहते हैं । अथवा भिक्षा की बेला में हाथ चाटने का जिनका स्वभाव है और जो धान्य का कण बीनकर आहार करनेवाले हैं ऐसे अन्यमतीय साधु 'चरक' हैं । इनमें कालमुख आदि भेद हैं । कंद, मूल और फल १क केश्वर। २ क बुधा । ३ क परिभत्तरी । ४ क गिण्हदि ।
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