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पंचाचाराधिकारः]
[२०५ कषायस्य च बन्धस्थिते: कारणं नास्ति । नन क्षीणकषायसयोगिनोर्योगोऽस्ति, सत्यमस्ति, किंतु तस्याकिचिकरत्वादभाव एवेति ॥२४४॥
निर्जराभेदार्थमाह--
पुवकदकम्मसडणं तु णिज्जरा सा पुणो हवे दुविहा ।
पढमा विवागजादा विदिया अविवागजादा य ॥४४५॥
अथ का निर्जरा? पूर्वकृतकर्मसटनं गलनं निर्जरेत्युच्यते सा पुननिर्जरा द्विविधा द्विप्रकारा भवेत् । प्रथमा विपाकजातोदयस्वरूपेण कर्मानुभवनं । द्वितीया निर्जरा भवेदविपाकजातानुभवमन्तरेणकहेलया कारणवशात् कर्मविनाशः ॥२४॥
विपाकजाताविपाक जातयोनिर्जरयोदृष्टान्तद्वारेण स्वरूपमाह
कालेण उवाएण य पच्चंति जधा वणप्फदिफलाणि ।
तध कालेण 'उवाएण य पच्चंति कदाणि कम्माणि ॥२४६॥
यथा कालेन क्रमपरिणामेनोपायेन च यवगोधूमादेवनस्पतेः फलानि पच्यन्ते तथा कालेनोदयागतनहीं होते हैं। पुनः सयोगकेवली तक यद्यपि योग से प्रकृति-प्रदेशबन्ध हो रहा है जो कि एक समय मात्र का है उसकी यहाँ पर विवक्षा नहीं करने से ही योग का अभाव कहकर बन्ध के कारण का अभाव कह दिया है। क्योंकि वहाँ का योग और उसके निमित्त से हुए प्रकृति प्रदेशबन्ध अकिंचित्कर होने से अभाव रूप ही हैं।
अब निर्जरा के भेदों को कहते हैं
गाथार्थ-पूर्वकृत कर्मों का झड़ना निर्जरा है। उसके पुनः दो भेद हैं। विपाक से होनेवाली पहली है और अविपाक से होने वाली दूसरी है ॥२४५।।
आचारवृत्ति-निर्जरा किसे कहते हैं ? पूर्व में किये गये कर्मों का झड़ना-गलना निर्जरा है । इसके दो भेद होते हैं । उदयरूप से कर्मों के फल का अनुभव करना विपाकजा निर्जरा है और अनुभव के बिना ही लीलामात्र में कारणों के निमित्त से-तपश्चरण आदि से जो कर्म झड़ जाते हैं वह अविपाकजा निर्जरा है।
इन सविपाक और अविपाक निर्जरा को दृष्टांत द्वारा कहते हैं
गाथार्थ-जैसे वनस्पति और फल समय के साथ तथा उपाय-प्रयोग से पकते हैं उसी प्रकार संचित किये हुए कर्म समय पाकर तथा उपाय के द्वारा फल देते हैं ॥२४६।।
प्राचारवृत्ति-जैसे काल से-क्रम परिणाम. से अर्थात् समय के अनुसार जौ, गेहूँ आदि वनस्पति तथा फल पकते हैं और उपाय से भी पकाये जाते हैं। उसी प्रकार से काल से उदय में आये हुए गोपुच्छरूप से तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरणरूप उपाय के द्वारा पूर्वसंचित कर्म पकते हैं अर्थात् नष्ट हो जाते हैं, ध्वस्त हो जाते हैं।
१ 'तवेण य' इत्यपि पाठः।
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