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पंचाचाराधिकारः।
[२०३ अनेन निर्जरोपायश्च व्याख्यातः । पूर्वसूत्रेष्वप्येवं व्याख्येयं, बन्धको बन्धो बन्धोपायः । आवस्रक आस्रव आस्रवोपायः । संवरकः संवरः संवरोपायः । अनेन व्याख्यानेन पौनरुक्त्यं च न भवतीति ॥२४२।।
दृष्टान्तद्वारेण जीवकर्मणोः शुद्धिमाह
जह धाऊ धम्मतो सुज्झदि सो अग्गिणा दु संतत्तो।
तयसा तधा विसुज्झदि जीवो कस्मेहि कणयं व ॥२४३॥
यथा धातुपापाणः कनकोपलो धम्यमानस्तप्यमानः शुद्धयते सोऽग्निना तु संतप्तो दग्धः किटकालिकादिरहितः संजायते, तथा तपसा विशुद्धते जीवः कर्मभिः कनकमिव । यथा धातुः कनकं अग्निसंयोगेन शुद्धं भवति, तथा तपोयोगन जीवः शुद्धो भवति ।।२४३।।
किमर्थ सकारणा निर्जरा व्याख्याता बन्धादयश्च सहेतवः नित्यपक्षेऽनित्यपक्षे च किमर्थमिति । तत्सर्व न घटते यतः कुतः?
जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागं कसायदो कुणदि ।
अपरिणदुच्छिण्णेसु य बंधट्टिदिकारणं णस्थि ॥२४४॥ चतुविधो बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन, कार्मणवर्गणागतपुद्गलानां ज्ञानावरणादिभावेन
अर्थात् संयमी साधु निर्जरक हैं। कर्मों का निर्जीर्ण होना निर्जरा है और तपश्चरण निर्जरा का उपाय है।
पूर्व सूत्रों में भी इसी प्रकार से व्याख्यान कर लेना चाहिए। जैसे बन्ध पदार्थ के कथन में बन्धक. बन्ध और बन्ध के उपाय इन तीनों को समझना चाहिए। आस्रव पदार्थ के कथन में आस्रवक, आस्रव और आस्रव के उपाय ; संवर पदार्थ के कथन में संवरक, संवर और संवर के उपाय, ऐसा इन सभी को जानना चाहिए । इस कथन से पुनरुक्त दोष नहीं आता है।
अब दृष्टान्त के द्वारा जीव और कर्म की शुद्धि को कहते हैं
गाथार्थ-जैसे तपाया हुआ स्वर्ण-पाषाण अग्नि से संतप्त होकर शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार, स्वर्णपाषाण की भाँति ही, यह जीव तप के द्वारा कर्मों से शुद्ध हो जाता है ॥२४३।।
प्राचारवत्ति-जैसे धातपाषाण-स्वर्णपत्थर तपाया हआ शद्ध हो जाता है अर्थात वह अग्नि से दग्ध हुआ कीट और कालिमा से रहित हो जाता है। उसी प्रकार से, स्वर्ण के समान ही, यह आत्मा तपश्चरण के द्वारा कर्मों से शुद्ध हो जाता है । अर्थात् जैसे सुवर्ण धातु अग्नि के संयोग से शुद्ध होती है वैसे ही जीव तप के योग से शुद्ध हो जाता है।
___ निर्जरा को सहेतुक और वन्ध आदि को भी सहेतुक क्यों बतलाया ? तथा नित्य पक्ष में और अनित्य पक्ष में ये सभी कार्य-कारण सम्बन्ध क्यों नहीं घटित होते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं
गाथार्थ-यह जीव योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध करता है। कषायों के अपरिणत और उच्छिन्न हो जाने पर स्थितिबन्ध के कारण नहीं रहते ॥२४४॥
आचारवृत्ति-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा बन्ध के चार भेद हैं।
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