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[मूलाचारे
भवति । चत्वारो रक्तपटा वैभाषिकसौत्रान्तिकयोगाचारमाध्यमिकभेदात् । नैयायिकवैशेषिकदर्शने चरकशब्देनोच्येते कणचरादिर्वा । कन्दफलमूलाद्याहारा भस्मोद्गुण्ठनपरा जटाधारिणो विनयपरास्तापसाः । सांख्यदर्शनस्थाः पंचविंशतितत्त्वज्ञाः परिव्राजकशब्देनोच्यन्ते इत्येवमाद्यन्येष्वपि तैर्थिकमतेष्वभिलाषः कुधर्मकांक्षेति । कथमेषां कुधर्मत्वं चेत् पदार्थानां तदीयानां विचार्यमाणानामयोगात्सर्वथा नित्यक्षणिकोभयत्वात् । इन्द्रियसंयमप्राणसंयमजीवविज्ञान पदार्थ सर्वज्ञपुण्यपापादीनां परस्परविरोधाच्चेति ।। २५१ ॥
योगाचार और माध्यमिक । अर्थात् बौद्धों के वैभाषिक आदि चार भेद होते हैं । उन्हीं सम्प्रदायों अपेक्षा उनके साधुओं के भी चार भेद हो जाते हैं । चरक शब्द से नैयायिक और वैशेषिक दर्शन कहे गये हैं अतः इन सम्प्रदायों के साधु भी चरक कहे जाते हैं । अथवा कणचर आदि भी चरक हैं अर्थात् खेत के कट जाने पर जो उच्छावृत्ति से - वहाँ से धान्य बीनकर, लाकर उदरपोषण करते हैं वे कणचर हैं । ऐसे साधु चरक कहलाते हैं । कन्दमूल फल आदि खानेवाले, भस्म से शरीर को लिप्त करनेवाले, जटा धारण करनेवाले और सभी की विनय करनेवाले तापसी कहलाते हैं । '
सांख्य सम्प्रदाय में कहे गये पच्चीस तत्त्व को माननेवाले परिव्राजक कहलाते हैं । इसी प्रकार और भी जो अन्य सम्प्रदाय हैं उनके मतों की अभिलाषा होना कुधर्माकांक्षा है ।
इनमें कुधर्मपना कैसे है ?
इन सभी के यहाँ के मान्य पदार्थों का विचार करने पर उनकी व्यवस्था नहीं बनती
है; क्योंकि इनमें कोई पदार्थों को सर्वथा नित्य मानते हैं, कोई सर्वथा क्षणिक मानते हैं और कोई सर्वथा रूप से ही उभय रूप मानते हैं । इसलिए इनकी मान्यताएँ कुधर्म हैं । तथा इन सभी के यहाँ इन्द्रियसंयम, प्राणीसंयम, जीव का लक्षण, विज्ञान, पदार्थ, सर्वज्ञदेव, पुण्य तथा पाप आदि के विषय में परस्पर विरोध देखा जाता है ।
इस प्रकार से इन तीनों कांक्षाओं को नहीं करनेवाला जीव निष्कांक्षित अंग की शुद्धि का पालन करनेवाला है ।
विशेषार्थ बौद्ध दर्शन का मौलिक सिद्धान्त है 'सर्वं क्षणिकं सत्त्वात्' सभी पदार्थ क्षणिक हैं, क्योंकि सत्रूप हैं । अर्थात् वे सभी अन्तरंग बहिरंग पदार्थ को सर्वथा एक क्षण ठहरनेवाले मानते हैं । इनके चार भेद हैं- माध्यमिक, योगाचार, सौत्रांतिक और वैभाषिक । माध्यमिक बाह्य और अभ्यंतर सभी वस्तुओं का अभाव कहते हैं अतः ये शून्यवादी अथवा शून्याद्वैतवादी हैं | योगाचार बाह्य वस्तु का अभाव मानते हैं और मात्र एक विज्ञान तत्त्व ही स्वीकार करते हैं अतः ये विज्ञानाद्वैतवादी हैं । सौत्रांतिक बाह्य वस्तु को मानकर उसे अनुमान ज्ञान का विषय कहते हैं और वैभाषिक बाह्य वस्तु को प्रत्यक्ष मानते हैं । अर्थात् ये दोनों अन्तरंग बहिरंग वस्तु को तो मानते हैं किन्तु सभी को सर्वथा क्षणिक कहते हैं ।
बौद्ध के इन चार भेदों की अपेक्षा उनके साधुओं में भी चार भेद हो जाते हैं । ये साधु लाल वस्त्र पहनते हैं ।
१. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० १६ ।
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