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[मूलाचारे
स्यात् । सर्वमेतच्छोभनं न क्षुधातृष्णानग्नत्वेन केशोत्पाटनादिना च दुःखं भवति एतद्विरूपकमित्येवं भावविचिकित्सेति ॥ २५२॥
द्रव्यविचिकित्साप्रपंच नार्थमाह
उच्चारं परसवणं खेलं सिंघाणयं च चम्मट्ठी ।
पूयं च मंससोणिदवंतं जल्लादि साधूनं ॥ २५३॥
उच्चारं, प्रश्रवणं, खेलं - श्लेष्मा, सिंहानकं, चर्म, अस्थिपूयं च क्लिन्नरुधिरं, मांस, मल, शोणितं, वान्तं जलं सर्वागीनं, मलं अंगैकदेशाच्छादकं, लालादिकं च साधूनामिति ॥ २५३ ॥
भावविचिकित्सां प्रपंचयन्नाह -
छुतहा सीदुण्हा दंसमसयमचेलभावो य ।
अरदिर दिइत्थिचरियाणिसीधिया सेज्ज प्रक्कोसो' ।। २५४ ॥ बधजायणं लाहो रोग तणप्फास जल्लसक्कारो ।
तह चेव पण्णपरिसह श्रण्णाणमदंसणं खमणं ।। २५५ ॥
छुह - क्षुत् चारित्रमोहनीयवीर्यान्तरायापेक्षाऽसातावेदनीयोदयादशनाभिलाषः । तण्हा तृषा चारित्रमोहनीयवीर्यान्तरायापेक्षाऽसातावेदनीयोदयादुदकपानेच्छा । सीद - शीतं तद्वयपेक्षाऽसातोदयात्प्रावरणे
या नग्नता से तथा केशलोंच आदि से दुःख होता है वह बुरा है — ठीक नहीं है ऐसा सोचना भावविचिकित्सा है।
द्रव्य विचिकित्सा को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं
गाथार्थ-साधुओं के मल, मूत्र, कफ, नाक का मल, चर्म, हड्डी, पीव, मांस, खून, वमन और पसीने तथा धूलि से युक्त मल को देखकर ग्लानि होना द्रव्य - विचिकित्सा है ।। २५३ ॥ श्राचारवृत्ति - मल, मूत्रादि का अर्थ सरल है । सर्वांगीण मल को जल्ल कहते हैं और शरीर के एक देश को प्रच्छादित करनेवाला मल कहलाता है । आदि शब्द से थूक, लार आदि को देखकर ग्लानि होना द्रव्यविचिकित्सा है ।
भाव विचिकित्सा को कहते हैं
गाथार्थ - सुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरतिरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, बध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, जल्ल, सत्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इनकी परीषह को सहन नहीं करना भाव - विचिकित्सा है ।। २५४-२५५।।
प्राचारवृत्ति - १. चारित्रमोहनीय और वीर्यान्तराय कर्म की अपेक्षा लेकर असाता वेदनीय का उदय होने से जो भोजन की अभिलाषा है वह क्षुधा है ।
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२. चारित्रमोहनीय और वीर्यान्तराय की सहायता से तथा असातावेदनीय के उदय से जो जल पीने की इच्छा है वह तृषा है ।
१ क मांसं शोणितं रक्तं जल्ले । २ क आकोसो ।
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