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पंचाचाराधिकारः ]
[ १-२
सेवाल - शैवलं उदकगतकायिका हरितवर्णी । पणग-पणकं भूमिगतं शैवलं इष्टकादिप्रभवा कायिका । केण्णग--आलम्बकछत्राणि शुक्लतिनीलरूपाणि अपस्कारोद्भवानि । कवगो — श्रृंगालम्बकच्छत्राणि जटाकाराणि । कुहणो य- आहारकांजिकादिगतपुष्पिका । वादरा काया - स्थूलकायाः अन्तर्दीपकत्वात् सर्वेरतीतपृथिव्यादिभिः राह सम्बध्यते सर्वेपि पृथिवीकायिकादयो वनस्पतिपर्य ता व्याख्यातप्रकाराः स्थूलकाया इति । सूक्ष्मकायप्रतिपादनार्थमाह । सव्र्व्वपि सर्वेपि पृथिव्यादिभेदा वनस्पतिभेदाश्च सुहमकायासूक्ष्म कायाश्चांगुला संख्यात भागशरीराः । सव्वत्थ – सर्वत्र सर्वस्मिन्लोके । जलत्थलागासे—जले स्थले आकाशे च । एते — पृथिव्यादयो वनस्पतिपर्यन्ता वादरकायाः सूक्ष्मकायाश्च भवन्ति, किंतु पृथिव्यष्टकविमानादिकमाश्रित्य स्थूलकायाः, सूक्ष्मकायाः पुनः सर्वत्र जलस्थालाकाशे ॥ २१५ ॥
सर्वत्र साधारणानां स्वरूपप्रतिपादनायाह
गूढसिरसंधिपव्वं समभंगमही रुहं च छिण्णरुहं । साहारणं सरीरं तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥ २१६ ॥
गूढसिरसंधिपत्यं - गूढा अदृश्यमानाः शिराः सन्धयोऽङगबन्धा पर्वाणि ग्रन्थयो यस्य तद्गूढशिरा
श्राचारवृत्ति - जल में होनेवाली हरी-हरी काई शैवाल है। जमीन पर तथा ईंट आदि पर लग जाने वाली काई पणक है । वर्षाकाल में कूड़े-कचरे पर जो छत्राकार वनस्पति हो जाती है वह किण्व कहलाती है। सींग में उत्पन्न होनेवाली जटाकार वनस्पति कवक है । भोजन और कांजी आदि पर लग जाने फूली (फफूंदी ) कुहन है । और भी, पीछे जिनका वर्णन किया गया है ये सभी वनस्पतियाँ बादरकाय हैं । अर्थात् पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक पर्यन्त जितने भी प्रकार बतलाए गये हैं वे सभी स्थूलकाय के ही प्रकार हैं ।
अब सूक्ष्मकाय का वर्णन करते हुए कहते हैं- सभी पृथिवी आदि से लेकर वनस्पति पर्यंत पांचों स्थावरकायों में सूक्ष्मकाय भी होते हैं । ये अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण शरीर की अवगाहना वाले हैं और सर्वत्र लोकाकाश में- जल में, स्थल में, आकाश में भरे हुए हैं । तात्पर्य यह हुआ कि पृथिवी से लेकर वनस्पति पर्यन्त अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँचों प्रकार के स्थावर जीव बादरकाय और सूक्ष्मकाय के भेद से दो प्रकार के होते हैं । उनमें से जो आठ प्रकार की पृथिवी और विमान आदि का आश्रय लेकर होते हैं वे बादरकाय हैं और सर्वत्र जल, स्थल, आकाश में विना आधार से रहनेवाले जीव सूक्ष्मकाय कहलाते हैं ।
सर्वत्र साधारण वनस्पति का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए कहते हैं—
गाथार्थ - जिनकी स्नायु, रेखाबंध और गाँठ अप्रगट हो, जिनका समान भंग होवे, और दोनों भंगों में परस्पर हीरुक -अन्तर्गत सूत्र - तंतु नहीं लगा रहे तथा छिन्न करने पर भी जो उग जावे उसे साधारणशरीर वनस्पति कहते हैं और इससे विपरीत को प्रत्येक वनस्पति कहते हैं ॥ २१६ ॥
श्राचारवृत्ति - जिसकी शिरा अर्थात् वहिःस्नायु, संधि - रेखाबन्ध, और पर्व- गाँठें
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