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पंचाचाराधिकारः ]
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अभव्यास्तद्विपरीता भवन्ति जीवसमासभेदेन गुणस्थानभेदेनं च बहुविधाः । एसगदी - एषा गतिः । जीवहिसे --- जीवनिर्देशे जीवप्रपंचे । गतींद्रियकाययोगवेदादिविधिभिः कुलयोन्यादिभिश्च बहुविधा जीवा इति, जीवनिर्देशे कर्तव्ये एतावती गतिः ॥ २२७॥
ननु जीवभेदा एते ये व्याख्यातास्ते किलक्षणा: ? इत्यत आह
गाणं पंचविधं पिअ अण्णाणतिगं च सागरुव गो । चदुदंसणमणगारो सव्वे तल्लक्खणा जीवा ॥२२८॥
नाणं --- जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञानमात्रं वा ज्ञानं वस्तुपरिच्छेदकं । तच्च पंचविहं-पंचप्रकारमतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलभेदेन । षट्त्रिंशत्त्रिशतभेदं चावग्रहेहावायधारणाभिः पडिन्द्रयाणि प्रगुणितानि तानि चतुर्विंशतिप्रकाराणि भवन्ति तत्र चतुर्षु व्यञ्जनावग्रहेषु प्रक्षिप्तेष्वष्टाविंशतिर्भवन्ति सा चाष्टाविंशतिर्बहुबहुविधक्षिप्रानि:सृतानुक्तध्र ुवेतरभेदैर्द्वादशभिर्गुणिताः षट्त्रिशत्त्रिशतभेदा भवन्ति मतिज्ञानमेतत् । श्रुतज्ञानमंगांगवा ह्यभेदेन द्विविध, अंगभेदेन द्वादशविध पर्यायाक्षर-पद-संघात प्रतिपत्तिकानुयोग प्राभृतकप्राभृतक प्राभृतक वस्तु
स्त्री, पुरुष और नपुंसक के भेद से ये तीन प्रकार के होते हैं ।
इस प्रकार जीवों के अनेक प्रकार हैं । अर्थात् ज्ञान, दर्शन, संयम, लेश्या, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार इन मार्गणाओं के भेद से भी जीव नाना प्रकार के होते हैं ।
ये सभी जीव भव्य और अभव्य के भेद से दो प्रकार के होते हैं । जो निर्वाण से पुरस्कृत होने योग्य हैं वे भव्य हैं और उनसे विपरीत अभव्य हैं ।
इसी तरह जीवसमास के भेद से और गुणस्थानों के भेद से भी जीव अनेक प्रकार के होते हैं । जीव का निर्देश करने में ये सभी प्रकार कहे गए हैं ।
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तात्पर्य यह हुआ कि गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद आदि विधानों से और कुल योनि आदि के भेदों से जीव अनेक प्रकार के होते हैं । जीव के वर्णन करने में यही व्यवस्था होती है । जिन जीवों के ये भेद बतलाये हैं उन जीवों का लक्षण क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं
गाथार्थ — पाँच प्रकार का ज्ञान और तीन प्रकार का अज्ञान ये. आठ साकारोपयोग हैं । चार प्रकार का दर्शन अनाकार उपयोग है। सभी जीव इन ज्ञान-दर्शन लक्षण वाले हैं ॥ २२८ ॥
श्राचारवृत्ति - जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाता है अथवा जो जानना मात्र है वह ज्ञान है । यह ज्ञान पदार्थों को जानने रूप लक्षणवाला है । मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल के भेद से इसके पाँच भेद हैं ।
उसमें से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हैं। पहले मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा चार भेद होते हैं । इन चारों से पाँच इन्द्रिय और मन - इन छहों का गुणा करने से (६४) चौबीस भेद हो जाते हैं । व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता है अतः चार इन्द्रियों होने की अपेक्षा इस व्यंजनावग्रह के चार भेद इन चौबीस में मिला देने
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