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[भूलाचारे
मनोवाक्कायलक्षणस्त्रिप्रकारस्तस्य विधिर्योगविधिस्तेन जीवास्त्रिप्रकारा मनोयोगिनो वाग्योगिन: काययोगिनश्चेति। मनोयोगिनश्चतुष्प्रकाराः सत्यानृतसत्यानतासत्यानृतभेदेन । एवं वाग्योगिनोऽपि चतुष्प्रकाराः। काययोगिनः सप्तविधा औदारिकवैक्रियिकाहारकतन्मिश्रकार्मणभेदेन । गदि-गतिर्भवान्तरप्राप्तिः, गतेविधिर्गतिविधिस्तेन, गतिविधिना चतस्रो गतयस्तभेदेन जीवाश्चतुर्विधा भवन्ति नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवभेदेन तेऽपि स्वभेदेनानेकविधाः । कसाय-कषन्तीति कषायः क्रोधमानमायालोभाः, अनंतानुबन्ध्य प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनभेदेन चतुःप्रकारास्तभेदेन प्राणिनोऽपि भिद्यन्ते। इंदिय-इन्द्र आत्मा तस्य लिंगं इन्द्रेण नामकर्मणा वा निर्वतितमिद्रियं तस्य विधिरिद्रियविधिस्तेनेन्द्रियविधिना जीवा: पंचप्रकारा एकेन्द्रिय-हींद्रिय-श्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियभेदेन । बहुबिहा-बहुविधा बहुप्रकारा। अनेन किमुक्तं भवति स्त्रीपुंनपुंसकभेदेन, ज्ञान-दर्शनसंयम-लेश्या-सम्यक्त्व-संज्ञाहारभेदेन च बहुविधास्ते सर्वेऽपि । (भव्व) भव्या निर्वाणपुरस्कृताः, (अभव्वा-)
है। ये द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय हैं। जो स्थानशील अर्थात् स्थिर रहने के स्वभाव वाले हैं वे स्थावर हैं । यहाँ 'स्था' धातु से स्वभाव अर्थ में 'वर' प्रत्यय हुआ है। ये पथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति पर्यन्त एकेन्द्रिय जीव होते हैं। अर्थात् 'त्रस' और 'स्था' धातु से इन त्रस, स्थावर शब्दों की व्युत्पत्ति होने से उपर्युक्त अर्थ किया है। यह अर्थ
औपचारिक है क्योंकि त्रस और स्थावर नाम कर्म के उदय से जो त्रस-स्थावर पर्याय मिलती है वही अर्थ यहाँ विवक्षित है।
___ आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्द होना योग का लक्षण है। उसके मन, वचन और काय की अपेक्षा से तीन प्रकार हो जाते हैं। उस योग की विघि योगविधि है। इसके निमित्त से जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी ऐसे तीन प्रकार के हो जाते हैं। सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग के भेद से मनोयोगी के चार भेद हैं। ऐसे ही वचनयोगी के भी सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग और अनुभय वचनयोग के निमित्त से चार भेद हो जाते हैं। औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रयोग, वैक्रियिककाय योग, वैक्रियिक मिश्रयोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्रयोग और कार्मण काययोग इन सात योगों की अपेक्षा से काययोगी के सात भेद होते हैं।
भवान्तर की प्राप्ति का नाम गति है। इसके चार भेद हैं । इन नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति के भेदों से जीवों के भी चार भेद हो जाते हैं। इनमें से भी प्रत्येक गति वाले जीव अनेक प्रकार के होते हैं।
__ जो आत्मा को कसती हैं-दुःख देती हैं वे कषाय कहलाती हैं। उनके क्रोध, मान, माया, लोभ से चार भेद हैं। ये चारों कषायें भी भी अनन्तानबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चार-चार भेद रूप हो जाती हैं। इन कषायों के भेद से प्राणियों के भी उतने ही भेद हो जाते हैं।
__ इन्द्र अर्थात् आत्मा, उसके लिंग-चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं। अथवा इन्द्र अर्थात् नाम कर्म, उसके द्वारा जो बनाई गई हैं वे इन्द्रियाँ हैं । इन इन्द्रियों के भेद से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इस तरह जीव पाँच प्रकार के होते हैं ।
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