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[मूलाचारे
पूर्वभेदेन विंशतिविधं च । अवधिज्ञानं देशावधि - परमावधि - सर्वावधिभेदतस्त्रिप्रकारं । मन:पर्ययज्ञानं ऋजुमति- विपुलमतिभेदेन द्विप्रकारं । केवलमेकमसहाय । अण्णाणतिगं - अज्ञानमयथात्मवस्तुपरिच्छित्तिस्वरूपं तस्य त्रयमज्ञानत्रयं मत्यज्ञानश्रुताज्ञान-विभंगज्ञानभेदेन संशयविपर्ययानध्यवसायाकिञ्चित्करादिभेदेन चानेकप्रकारं । सागर व जोगो ---सहाकारेण व्यक्त्यार्थेन वर्तत इति साकार: सविकल्पो गुणीभूतसामान्यविशेषग्रहणप्रवण
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से २८ भेद हो जाते हैं । पुनः अट्ठाईस को बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त, ध्रुव तथा इनसे उल्टे अर्थात् अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त और अध्रुव इन बारह भेदों से गुणा करने पर (२८×१२- ३३६) तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं । अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है; उसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं । अवग्रह के अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह की अपेक्षा दो भ ेद हैं । व्यक्तपदार्थ को ग्रहण करनेवाला अर्थावग्रह है और अव्यक्त को ग्रहण करनेवाला व्यंजनावग्रह है । व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता है तथा इस अवग्रह के बाद ईहा आदि नहीं होते हैं और अर्थावग्रह पाँच इन्द्रियों तथा मन से भी होता है और इसके बाद ईहा, अवाय, धारणा भी होते हैं । पुनः इन ज्ञान के विषयभूत पदार्थ बहु, बहुविध आदि के भेद से बारह भेद रूप हैं अतः उस सम्बन्धी ज्ञान के भी बारह भेद हो जाते हैं । इस प्रकार से अवग्रह आदि चार को छह इन्द्रियों से गुणित करके व्यंजनावग्रह के चार भेद मिला देने पर पुनः उन अट्ठाईस को बारह से गुणा करने पर तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं ।
ज्ञानपूर्वक होता है वह श्रुतज्ञान है । उसके अंग और अंगबाह्य की अपेक्षा से दो भेद हैं। अंग के बारह भेद हैं जो कि आचारांग आदि के नामों से प्रसिद्ध हैं । अंगबाह्य के बीस भेद होते हैं ।
पर्याय, अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग, प्राभृतक, प्राभृतक - प्राभृतक, वस्तु और पूर्व ये दश भेद हुए । पुनः प्रत्येक के साथ समास पद जोड़ने से दश भेद होकर बीस हो जाते हैं । अर्थात् पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिकसमास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृतक, प्राभृतकसमास, प्राभृतकप्राभृतक, प्राभृतकप्राभृतकसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास ये बीस भेद माने हैं ।
अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के भेद से तीन प्रकार होते हैं । मन:पर्ययज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति की अपेक्षा दो भेद हैं ।
केवलज्ञान एक असहाय है । अर्थात् यह ज्ञान इन्द्रिय आदि की सहायता से रहित होने से असहाय है और परिपूर्ण होने से एक है ।
अयथात्मक वस्तु – जो वस्तु जैसी है उसको उससे विपरीत जाननेरूप लक्षणवाला ज्ञान अज्ञान कहलाता है। उसके तीन भेद हैं । मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान । तथा संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, और अकिंचित्कर आदि के भेद से यह अज्ञान अनेक प्रकार का भी है ।
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