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[१७१
पंचाचाराधिकारः]
आदौ निर्दिष्टस्य जीवस्य भेदपूर्वक लक्षणं प्रतिपादयन्नाह--
दुविहा य होंति जीवा संसारत्था य णिब्बुदा देव ।
छद्धा संसारत्था सिद्धिगदा णिन्बुदा जीवा ॥२०४॥
विहा य-द्विप्रकारा द्वौ प्रकारौ येषां ते द्विप्रकारा द्विभेदाः जीवा: प्राणिनः । संसारस्थायसंसारे तिष्ठन्तीति संसारस्थाश्चतुर्गतिनिवासिनः । णिव्वदा चेय-निर्वताश्चेति मुक्ति गता इत्यर्थः । छद्धाषट्वा षट्प्रकाराः । संसारस्था-संसारस्थाः । सिद्धिगदा--सिद्धिंगता उपलब्धात्मस्वरूपाः। णिव्वदानिर्वृता जीवास्तेषां भेदकारणाभावादभेदास्ते । संसारमुक्तिवासभेदेन द्विविधा जीवाः। संसारस्थाः पुनः षट्प्रकारा एकरूपाश्च निवृता इति सम्बन्धः ।।२०४॥
पदार्थ हैं वे ही अभेद उपचार के द्वारा सम्यक्त्व के विषय होने से, कारण होने से सम्यक्त्व हैं। किन्तु अभेद रूप से निश्चय से देखें तो आत्मा का परिणाम ही सम्यक्त्व है।
प्रश्न-भूतार्थ नय के द्वारा जाने हुए नव पदार्थ सम्यक्त्व होते हैं ऐसा जो आपने कहां, उस भूतार्थ के ज्ञान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-यद्यपि ये नव पदार्थ तीर्थ की प्रवृत्ति निमित होने से प्राथमिक शिष्य की अपेक्षा से भूतार्थ कहे जाते हैं। फिर भी अभेद रत्नत्रयलक्षण निर्विकल्प समाधि के काल में वे अभूतार्थ-असत्यार्थ ठहरते हैं अर्थात् वे शुद्धात्मा के स्वरूप नहीं होते हैं। किन्तु इस परम समाधि के काल में तो उन नव पदार्थों में शुद्ध निश्चयनय से एक शुद्धात्मा ही झलकता है, प्रकाशित होता है, प्रतीति में आता है, अनुभव किया जाता है। और, जो वहाँ पर यह अनुभूति, प्रतीति अथवा शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है वही निरचय सम्यक्त्व है। वह अनुभूति ही गुण और गुणी में निश्चयनय से अभेद विवक्षा करने पर शुद्धात्मा का स्वरूप है ऐसा तात्पर्य है। और जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं वे केवल प्रारम्भ अवस्था में तत्त्वों के विचार के समय सम्यक्त्व के लिए सहकारी कारणभूत होते हैं वे भी सविकल्प अवस्था में ही भूतार्थ हैं, किन्तु परमसमाधि काल में तो वे भी अभूतार्थ हो जाते हैं। उन सबमें भूतार्थ रूप से एक शुद्ध जीव ही प्रतीति में आता है।
अभिप्राय यह है कि आचार्य ने यहाँ पर समीचीनतया जाने गये नव पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है सो अभेदोपचार करके कहा है। वास्तव में ये सम्यक्त्व के विषय हैं अथवा सम्यक्त्व के लिए कारण भी हैं।
___ अब आदि में जिसका निर्देश किया है उस जीव का भेदपूर्वक लक्षण बतलाते हुए आचार्य कहते हैं
गाथार्थ—जीव दो प्रकार के होते हैं-संसार में स्थित अर्थात् संसारी और मुक्त । संसारी जीव छह प्रकार के हैं और मुक्तजीव सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं ।।२०४॥
आचारवत्ति- संसार और मुक्ति में वास करने की अपेक्षा से जीव के मल में दो भेद हैं । 'संसारे तिष्ठन्तीति संसारस्थाः' संसार में जो ठहरे हुए हैं वे संसारी जीव हैं । ये चारों गतियों में निवास करने वाले हैं। मुक्ति को प्राप्त हुए जीव निर्वत कहलाते हैं। संसारी जीव के छह भेद हैं और भेद के कारणों का अभाव होने से मुक्त जीव अभेद-एक रूप ही हैं।
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