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पंचाचाराधिकारः ]
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प्रदेशानां कर्मरहितत्वं स्वतंत्रीभावः । चशब्दः समुच्चयार्थः । सम्मत - सम्यक्त्वं । एतेषां यथाक्रम एव न्यायः, ' जीवस्य प्राधान्यादुत्तरोत्तराणां पूर्वपूर्वोपकाराय प्रवृत्तत्वाद्वा । न चैतेषामभावो ज्ञानरूपमुपचारो वा धर्मार्थकाममोक्षाणामभावादाश्रयाभावात् मुख्या भावाच्च प्रमाणप्रमेयव्यवहाराभावाल्लोकव्यवहाराभावाच्च । जीवाजीवा भूतार्थेनाधिगताः सम्यक्त्वं । तथा पुण्यपापं चाधिगतं सम्यक्त्वं । तथा आस्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाश्चाधिगताः सन्तः सम्यक्त्वं भवति । ननु कथमेतेऽधिगताः सम्यक्त्वं यावतैषामधिगतानां यत्प्रधानं तत् सम्यक्त्वमित्युक्तं, नैष दोषः, श्रद्धानरूपंवेयमधिगतिरन्यथा परमार्थाधिगतेरभावात् कारणे कार्योपचाराद्वा जीवादयोऽधिगताः सम्यक्त्वमित्युक्तं । जीवादीनां परमार्थानां यच्छ्रद्धानं तत्सम्यक्त्वं । अनेन न्यायेनाधिगमलक्षणं दर्शनमुक्तं भवति ॥ २०३ ॥
संवर है । कर्मों का निर्जीर्ण होना अथवा जिसके द्वारा कर्म निर्जीर्ण होते हैं, झड़ते हैं, वह निर्जरा है । अर्थात् जीव में लगे हुए कर्म प्रदेशों की हानि होना निर्जरा है । यहाँ व्याकरण के लक्षण की व्युत्पत्ति से 'निर्जरणं अनया निर्जरयति वा' इस प्रकार से भाव अर्थमें और करण -साधन में विवक्षित है, जिसका ऐसा अर्थ है कि कर्मों का झड़ना यह तो द्रव्य निर्जरा है और जिन परिणामों से कर्म झड़ते हैं वे परिणाम ही भावनिर्जरा हैं ।
जिसके द्वारा कर्म बँधते हैं अथवा बँधना मात्र ही बन्ध का लक्षण है ( बध्यतेऽनेन बन्धनमात्रं वा ) इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी भावबन्ध और द्रव्यबन्ध विवक्षित हैं । जीव के प्रदेश और कर्म प्रदेश - परमाणुओं का परस्पर में संश्लेष हो जाना -- एकमेक हो जाना बन्ध है, जो जीव और पुद्गलवर्गणा दोनों की स्वन्त्रता को समाप्त कर उन्हें परतन्त्र कर देता है ।
जिसके द्वारा जीव मुक्त होवे, छूट जाय अथवा छूटना मात्र ही मोक्ष है । इसमें भी व्युत्पत्ति (मुच्यतेऽनेन मुक्तिर्वा) के लक्षण से भावमोक्ष ओर द्रव्यमोक्ष विवक्षित है अर्थात् जिन परिणामों से आत्मा कर्म से छूटता है वह भावमोक्ष है और कर्मों से छूटना ही द्रव्य मोक्ष है सो ही कहते हैं कि जीव के प्रदेशों का कर्म से रहित हो जाना, जीव की परतन्त्र अवस्था समाप्त होकर उसका पूर्ण स्वतन्त्र भाव प्रकट हो जाना ही मोक्ष है ।
इन नव पदार्थों का जो यहाँ क्रम लिया है वही न्यायपूर्ण है, क्योंकि जीव द्रव्य ही प्रधान है अथवा आगे-आगे के पदार्थ पूर्व-पूर्व के उपकार के लिए प्रवृत्त होते हैं ।
शंका- इन पदार्थों का अभाव है अथवा ये पदार्थ ज्ञान रूप ही हैं या ये उपचार रूप ही हैं ? अर्थात् शून्यवादी किसी भी पदार्थ का अस्तित्व नहीं मानते हैं सो वे ही सबका अभाव कहते हैं | विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध सभी चर-अचर जगत् को एक ज्ञान रूप ही मानते हैं । तथा सामान्य बौद्ध या ब्रह्माद्वैतवादी सभी वस्तुओं को उपचार अर्थात् कल्पना रूप ही मानते हैं। उनका कहना है कि यह सम्पूर्ण विश्व अविद्या का ही विलास है । इन सम्प्रदायवादियों की अपेक्षा से ये तीन शंकाएँ उठाई गई हैं ।
समाधान - आप ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि यदि जीव पदार्थों को या मात्र जीव को ही न माना जाय तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अभाव हो जायेगा ।
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न्याय्य इति प्रतिभाति । २ क 'वाश्च । ३ क "त्वं भवति । ४ क परमार्थतोऽधिगतानां ।
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