________________
पंचाचाराधिकारः]
[१७५ गैरुय--गरिकवर्णो मणी रुधिराक्षः। चंदण-चन्दनो मणिः श्रीखंडचन्दनगन्धः । वव्वग-वप्पको मणिर्मरकतमनेकभेदं । वग-वको मणिः वकवर्णाकारः पुष्परागः । मोए-मोचो मणि: कदलीवर्णाकारो नीलमणिः । तह-तथा। मसारगल्लेय-मसूणपाषाणमणिविद्र मवर्णः । ते जाण-तान् जानीहि । पुढविजीवा पृथिवीजीवान् । तंतिः कि प्रयोजनं? जाणित्ता--ज्ञात्वा। परिहरेदवा-परिहर्तव्या रक्षितव्याः संयमपालनामा तानेलान् शुद्धशिवीजीशन तमारपृथिवीजीवांश्च मणिप्रकारान् स्थूलान् जानीहि ज्ञात्वा च परिहर्तव्याः । सूक्ष्माः पुनः सर्वत्र ते विज्ञातव्या: आगमलेन । षट्त्रिंशद्देदेषु पृथिवीविकारेषु पृथिव्यष्टकमेर-कुलपर्वत-द्वीप-वेदिका-विमान-भवन प्रतिपा-तोरण-स्तूप--चैत्यवृक्ष-जम्बू-शाल्मलीद्र मेष्वाकार--मानुषोत्तर-- विजयार्ध-कांचनगिरि-दधिमुखाउजन-रतिकर-वृषभगिरि-सामान्यपर्वत-स्वयंभु-नगवरेन्द--वक्षार-रुचक--कुण्डलवर-दंष्ट्रा-पर्वत रत्नाकरादयोऽन्तर्भवन्तीति ।।२०६।।
है। जलकान्त--यह मणि जन के समान वर्ण वाली है। सूर्यकान्त- इस मणि पर सूर्य की किरणों के पड़ने से अग्नि उत्पन्न हो जाती है।
गैरिक-यह मणि लालवर्ण की होती है। चन्दन-यह मणि श्रीखण्ड और चन्दन के समान गन्धवाली है। दापक-यह मरकत मणि है । इसके अनेक भेद हैं। वक-यह मणि बगुले के समान वर्णवाली है, इसे ही पुष्परागमणि कहते हैं। मोच-यह मणि कदलीपत्र के समान वर्णवाली है, इसे नीलमणि भी कहते हैं। मसारगल्ल-यह चिकने-चिकने पाषाणरूपमणि है और मूंगे के वर्णवाली है। इन सबको पृथिवीकायिक जीव समझो।
शंका-इनके जानने का क्या प्रयोजन है ?
समाधान-इन्हें जानकर संयम के हेतु इन जीवों की रक्षा करना चाहिए अर्थात् शुद्ध पृथिवी के जीवों को और खरपृथिवी के जीवों तथा मणियों के नाना प्रकार रूप बादर कायिक जीवों को जानकर उनका परिहार करना चाहिए। क्योंकि बादर-जीवों की ही रक्षा हो सकती है। पुनः सूक्ष्म जीव सर्वत्र लोक में तिल में तेल के समान भरे हुए हैं, उनको भी आगम के द्वारा जानना चाहिए।
इन छत्तीस भेद रूप पृथिवी के विकारों में सात नरक की पृथिवी और एक ईषत् प्राग्भार नामवाली सिद्धशिला रूप पृथ्वी ये आठ भूमियाँ, मेरुपर्वत, कुलाचल, द्वीप और द्वीपसमूहों की वेदिकाएँ, देवों के विमान, भवन, जिनप्रतिमा आदि प्रतिमाएँ, तोरणद्वार, स्तूप, चैत्यवृक्ष, जम्बवृक्ष, शाल्मली वृक्ष, इष्वाकारपर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, विजयापर्वत, कांचन पर्वत, दधिमुखपर्वत, अंजनगिरि, रतिकर पर्वत, वृषभाचल तथा और भी सामान्यपर्वत, स्वयंप्रभ पर्वत, वक्षारपर्वत, रुचकवरपर्वत, कुण्डलवरपर्वत, गजदन्त और रत्नों की खान आदि अन्तर्भूत हो जाते हैं। अर्थात् मत्यलोक में होनेवाले सम्पूर्ण पर्वत, वेदिकाएँ, जिनभवन और जिनप्रतिमाएँ, नरक की भूमियाँ, बिल, भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विमान, भवन, इसमें स्थित जिनमन्दिर, जिनप्रतिमाएँ तथा सिद्धशिलाभूमि, जम्बूवृक्ष आदि सभी इन छत्तीस भेदों में गर्भित हो जाते हैं।
भावार्थ-पृथिवी के भेद-१. मिट्टी, २. रेत, ३. कंकड़, ४. पत्थर, ५. शिला,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org