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[मूलाचारे
शिथिलस्य दृढयनं हितमितोपदेशादिभिः । वच्छल्ल — वत्सलस्य भावो वात्सल्यं चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघे सर्वथानुपवर्तनं धर्मपरिणामेनापद्यनापदि सधर्मजीवानामुपकाराय द्रव्योपदेशादिना हितमाचरणं । पभावणाय - प्रभावना च प्रभाव्यते मार्गोऽ नयेति प्रभावना वादपूजादानव्याख्यानमंत्रतंत्रादिभिः सम्यगुपदेशैर्मिथ्यादृष्टि रोधं कृत्वात्प्रणीतशासनोद्योतनं ते एते निःशंकितादयो गुणाः । अट्ठ - अष्टौ वेदितव्याः । एतेषां वैपरीत्येन तावन्तोऽतीचारा व्यतिरेकद्वारेण कथिता एवातो नातिचारकथनं प्रतिज्ञाय शुद्धिकथनं दोषायेति ॥ २०१ ||
अथ दर्शनं कि लक्षणं ? यस्य शुद्धयोऽतीचाराश्चोक्ता दर्शनं मार्गः सम्यक्त्वं कुत इत्यत
आह
मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं । मग्गो खलु सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वाणं ॥ २०२॥
मग्गो-मार्गो मोक्षमार्गाभ्युपायः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसामन्योन्यापेक्षया वर्तनं । मग्गफलंति — मार्गस्य फलं सम्यक्सुखाद्यवाप्तिः मार्गफलमिति च । इतिशब्दो व्यवच्छेदार्थः नान्यत्त्रैविध्यमित्यर्थः । दुविहं — द्वौ प्रकारावस्यद्विविधं तस्य भावो द्वैविध्यं । जिणसासणे - जिनस्य शासनमागमस्तस्मिन् जिनशासने । समाक्खादं - समाख्यातं सम्यगुक्तं । अथवा प्रथमान्तमेतज्जिनशासनमिति । मग्नो मार्गः । खलु — स्फुटं ।
जिसके द्वारा मार्ग प्रभावित किया जाता है वह प्रभावना है । वाद - शास्त्रार्थ, पूजा, दान, व्याख्यान, मन्त्र तन्त्र आदि के द्वारा और सच्चे उपदेश के द्वारा मिथ्यादृष्टि जनों के प्रभाव को रोककर अर्हन्त देव के द्वारा प्रणीत जैन शासन का उद्योतन करना प्रभावना है ।
शंकित आदि आठ गुण हैं ऐसा जानना चाहिए। इन आठ गुणों से विपरीत उतने ही अतिचार होते हैं जो कि व्यतिरेक द्वारा कहे ही गए हैं। इसलिए आचार्य ने अतिचार के कहने की प्रतिज्ञा करके जो यहाँ पर शुद्धियों का कथन किया है वह दोषास्पद नहीं हैं ।
विशेष - गाथा क्र० २०० में आचार्य ने तो कहा है कि मैं दर्शन के अतिचारों को कहूँगा तथा गाथा ऋ० २०१ में वे दर्शन की आठ शुद्धियों का वर्णन करते हैं । सो यह कोई दोष नहीं है क्योंकि ये निशंकित आदि आठ गुण कहे गए हैं । इनसे उल्टे ही आठ दोष हो जाते हैं जोकि इनके वर्णन से ही जाने जाते हैं ।
उस दर्शन का लक्षण क्या है जिसकी शुद्धियाँ और अतिचारों को कहा गया है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि दर्शन मार्ग है अर्थात् सम्यक्त्व है । यह कैसे ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ - मार्ग और मार्गफल इस तरह दो प्रकार ही जिन शासन में कहे गये हैं । निश्चित रूप से सम्यक्त्व है मार्ग और मार्ग का फल है निर्वाण ॥ २०२॥
आचारवृत्ति - मोक्षमार्ग या मोक्ष के उपाय को यहाँ मार्ग कहा है अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप का परस्पर में सापेक्ष वर्तन होना मार्ग है। सच्चे सुख आदि की प्राप्ति हो जाना मार्ग का फल है । इस तरह दो ही प्रकार जिनशासन में जैन आगम में कहे गये हैं,
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