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पंचाचाराधिकारः]
[१६५ णिस्संकिद णिक्कंखिद णिविदिगिच्छा अमूढदिट्टीय।
उवग्रहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पभावणा य ते अट्ठ॥२०१॥
हिस्संकिद---शंका निश्चयाभावः शुद्धपरिणामाच्चलनं शंकाया निर्गतो निःशंकस्तस्य भावो निःशंकता तत्त्वरुची शुद्धपरिणामः । णिक्कंखिद-कांक्षा इहपरलोकभोगाभिलाषः, कांक्षाया निर्गतो निष्कांक्षस्तस्य भावो निष्कांक्षता सांसारिकसुखारुचिः । णिविदिगिंछा--विचिकित्साया जुगुप्सा अस्नानमलधारणनग्नत्वादिवतारुचिविचिकित्साया निर्गतो निर्विचिकित्सस्तस्य भावो निविचिकित्सता द्रव्यभावद्वारेण विपरिणामाभावः । अमूढदिट्ठीय-मूढान्यत्रगता न मूढा अमूढा, अमूढा दृष्टि: रुचिर्यस्यासावमूढदृष्टिस्तस्य भावोऽमूढदृष्टिता लौकिकसामयिकवैदिकमिथ्याव्यवहारापरिणामः। उवगृहण-उपगृहनं चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघदोषापहरणं प्रमादाचरितस्य च संवरणं । ठिदिकरणं--अस्थिर: स्थिर: क्रियते सम्यक्त्वचारित्रादिष स्थिरीकरणं रत्नत्रये
गाथार्थ-निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ शुद्धि हैं ॥२०१॥
प्राचारवृत्ति-शंका-निश्चय का अभाव होना, या शुद्ध परिणाम से चलित होना। इस शंका से जो रहित है वह निःशंक है उसका भाव निःशंकता है अर्थात् तत्त्वों की रुचि में शुद्ध परिणाम का होना।
__ इस लोक परलोक सम्बन्धी भोगों की अभिलाषा कांक्षा है। कांक्षा जिसकी निकल गई है वह निष्कांक्ष है, उसका भाव निष्कांक्षता है अर्थात् सांसारिक सुखों में अरुचि का होना।
जुगुप्सा-ग्लानि को विचिकित्सा कहते हैं। अस्नानव्रत, मलधारण और नग्नत्व आदि में अरुचि होना। इस विचिकित्सा का न होना निविचिकित्सा है, उसका भाव निविचिकित्सता है अर्थात् द्रव्य और भाव के द्वारा विकाररूप (ग्लानि या निन्दा) परिणाम का नहीं होना।
___ अन्यत्र जानेवाली दृष्टि--रुचि मूढदृष्टि है और जिसकी मूढ़दृष्टि नहीं है वह अमूढ़दृष्टि है, उसका भाव अमूढ़दृष्टिता है। लौकिक, सामयिक, वैदिक मूढ़ताओं में मिथ्याव्यवहार रूप परिणाम न होना । अर्थात अग्नि में जलकर मरना, सती होना आदि लोकमढ़ता है। अन्य संप्रदाय को समय कहते हैं उसमें मूढ़बुद्धि होना तथा वेदों में रुचि होना यह सब मूढदृष्टिता है, इनमें रुचि-श्रद्धा न होना अमूढ़दृष्टिता है।।
चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ में हुए किसी भी दोष को दूर करना अर्थात् प्रमाद से कोई दोषरूप आचरण हुआ हो तो उसे ढाँक देना यह उपगूहन है।
अस्थिर को स्थिर करना अर्थात् सम्यक्त्व और चारित्र आदि में उसे स्थिर करना, जो रत्नत्रय में शिथिल हो रहा है उसको हितमित उपदेश आदि से उसी में दृढ़ कर देना स्थितीकरण है।
वत्सल का भाव वात्सल्य है। चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ के अनुकूल ही सर्वथा वर्तन करना, सधर्मी जीवों के ऊपर आपत्ति के आने पर या बिना आपत्ति के भी उनके उपकार के लिए धर्मपरिणाम से प्रासुक द्रव्य व उपदेश आदि के द्वारा उनके हितरूप आचरण करना वात्सल्य है।
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