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[मूलाचार
एवं विधाणचरियं - एवंविधां चर्यां एवप्रकारानुष्ठानं । चरंति-आचरन्ति । जे-ये । साधवो य - साधवश्च मुनयश्च । अज्जाओ–आर्याः ते साधव आर्याश्च । जगपुज्जं - जगतः पूजा जगत्पूजा तां जगत्पूजां । कितिकीर्ति यशः । सुहं च सुखं च । लक्षूण - लब्ध्वा । सिज्यंति - सिद्ध्यन्ति । एवंविधानचर्या ये चरन्ति साधव आर्याश्च ते ताश्च जगत्पूजां कीतिं सुखं च लब्ध्वा सिद्ध्यन्तीति ॥ १९६॥
ग्रन्थकर्तात्मगर्वनिरासार्थसमर्पणार्थमाह
एवं सामाचारो बहुभेदो वण्णिदो समासेण । वित्थारसमावण्णो वित्थरिदव्वो बुहजणेह ॥ १६७॥
एवं - अनेन प्रकारेण । सामाचारो - सामाचारः - आगमप्रसिद्धानुष्ठानं । बहुभेदो - बहवो भेदा यस्यासौ बहुभेदो बहुप्रकारः । वण्णिदो-वर्णितः कथितः । समासेन - संक्षेपेण । वित्थारसमावण्णो-विस्तारं प्रपंचं समापन्नः प्राप्तो विस्तारयोग्यः । वित्थरियव्वो– विस्तारयितव्यः प्रपंचनीयः । बुहजणेह - बुधजनैरागमव्याकरणादिकुशलैः । एवं पूर्वस्मिन् यो बहुभेदः सामाचारोऽभूत् स मया संक्षेपेण वर्णितो यतोऽतो विस्तारयोग्यतत्वाद्विस्तारयितव्यो बुधजनैरिति ।
इत्याचारवृत्तौ वसुनन्दिविरचितायां चतुर्थः परिच्छेदः ।
टीका का अर्थ सरल है ॥ १६६ ॥
अब ग्रन्थकर्ता आचार्य अपने गर्व को दूर करने हेतु और समर्पण हेतु निवेदन करते हैं
गाथार्थ - इस प्रकार से अनेक भेदरूप समाचार को मैंने संक्षेप से कहा है । बुद्धिमानों को इसका विस्तार स्वरूप जानकर इसे विस्तृत करना चाहिए ॥ १६७॥
श्राचारवृत्ति- -आगम में प्रसिद्ध अनुष्ठान रूप यह समाचार विविध प्रकार का है, इसे मैंने कहा है । चूंकि यह विस्तार के योग्य है इसलिए आगम और व्याकरण आदि में कुशल बुद्धिमान नों को इसका विस्तार से विवेचन करना चाहिए।
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इस प्रकार से श्री वट्टकेर आचार्य विरचित मूलाचार में वसुनन्दि आचार्य द्वारा विरचित आचारवृत्ति नाम की टीका में चौथा परिच्छेद पूर्ण हुआ ।
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