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[मूलाचारे
कप्रमाणाभावाद्वा । न चेतरेतराश्रयसद्भावः । द्रव्यार्थिकनयार्पणयानादिनिधनस्यागमस्य स्वमहिम्नैव प्रामाण्यात् । पर्यायार्थिकनयाश्रयणाच्च घातिकर्मविनिर्मुक्तात्प्रणीतत्वाद्वा । न च जीवानां कर्मबन्धाभावाभावो हानिवृद्धिदर्शनादिति । त्रिभुवनमन्दरम हितानर्ह तस्त्रिलोकमस्तकस्थांस्त्रैलोक्यविदितवीर्यान् सिद्धांश्च प्रणिपत्य वक्ष्ये इति सम्बन्धः । अथवा सर्वाणि शास्त्राणि नमस्कारपूर्वाणि, कुतः सर्वज्ञपूर्वकत्व । तेषां यतोऽतः स्वतंत्रोऽयं नमस्कारः त्रिभुवन मन्द र महितानर्हतः सिद्धांश्च प्रणिपतामि । शेषाणि विशेषणान्यनयोरेव । अथवा सिद्धानामेव नमस्कारोऽयं भूतपूर्वपतिन्यायेन विशेषणानां सद्भावादिति । वक्ष्ये इति क्रियापदमुक्तं ।। १८६ ।।
प्रश्न- सिद्धों का अस्तित्व यहाँ सिद्ध ही नहीं है इसलिए वे असिद्ध हैं ?
उत्तर- ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि पूर्वापर से विरोध रहित आगम और उन सिद्धों के या अहंतों के स्वरूप का प्रतिपादक प्रमाण विद्यमान है । अथवा सर्वज्ञ के सद्भाव को बाधित करनेवाले प्रमाण का अभाव है ।
प्रश्न --- इससे तो इतरेतराश्रय दोष आ जावेगा, क्योंकि जब सर्वज्ञ की सिद्धि हो तब उनसे प्ररूपित आगम प्रामाणिक सिद्ध हों और जब आगम की प्रामाणिकता सिद्ध हो तब उसके द्वारा सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध हो। इस तरह तो दोनों ही सिद्ध नहीं हो सकेंगे ।
उत्तर--नहीं, यहाँ इतरेतराश्रय दोष नही आता है; क्योंकि द्रव्यार्थिकनय की विवक्षा से यह आगम अनादि-निधन है और वह अपनी महिमा से ही प्रामाणिक है तथा पर्यायार्थिकनय की विवक्षा करने से घातिकर्म से रहित ऐसे अर्हन्तदेव के द्वारा प्रणीत है इसलिए वह प्रमाणभूत है । अतः ऐसे आगम से सर्वज्ञदेव की सिद्धि हो जाती है ।
प्रश्न- जीवों के कर्मबन्ध का अभाव नहीं हो सकता है। अर्थात् एक अनादिनिधन ईश्वर को मानने वाले कुछ संप्रदायवादी ऐसे हैं जो किसी भी कर्मसहित जीवों के सम्पूर्ण कर्मों का अभाव होना स्वीकार नहीं करते हैं ।
उत्तर - ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि संसारी जीवों में कर्मबन्ध के अभाव की हानि-वृद्धि देखी जाती है । अर्थात् किसी जीव में राग-द्वेष आदि या दुःख शोक कर्मबन्ध के कार्य कम-कम हैं, किन्हीं जीवों में अधिक-अधिक इसलिए ऐसा निश्चय हो जाता है कि किसी-न-किसी जोव में सम्पूर्णतया कर्मों का अभाव अवश्य हो जाता होगा । इसलिए कर्मबन्ध का अभाव होना प्रसिद्ध ही है ।
तात्पर्य यह है कि तीन लोक के जीवों द्वारा मंदर पर पूजा को प्राप्त अर्हन्त देव को और तीन लोक के मस्तक पर स्थित तथा तीन लोक में जिनकी शक्ति प्रसिद्ध है ऐसे सिद्धों को नमस्कार करके मैं पंचाचार को कहूँगा, ऐसा गाथा में सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए ।
अथवा सभी शास्त्र नमस्कार पूर्वक ही होते हैं अर्थात् सभी शास्त्रों के प्रारम्भ में इष्टदेव को नमस्कार किया जाता है इसलिए यहाँ भी किया गया है ।
प्रश्न - ऐसा क्यों ?
उत्तर - यतः वे सभी शास्त्र सर्वज्ञपूर्वक ही होते हैं अतः यह नमस्कार स्वतंत्र है ।
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