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[मूलाचारे तामां, पडिरूव-प्रतिरूपा सदृशाः । विसु द्व-विशुद्वा । चरियाओ-चर्यानुष्ठानं यासां ता धर्मकुलकीर्तिदीक्षाप्रतिरूपविशुद्धचर्याः क्षमामार्दवादिमातृपितृकुलात्मयशोव्रतसदृशाभग्नाचरणा इति ॥१०॥
कथं च तास्तिष्ठन्त्यत आह
अगिहत्थमिस्सणिलए असण्णिवाए विसुद्धसंचारे।
दो तिण्णि व अज्जाप्रो बहुगीओ वा 'सहत्थंति ॥११॥
अगिहत्थमिस्सणिलए--गृहे तिष्ठन्तीति गृहस्थाः स्वदारपरिग्रहासक्तास्त:, मिस्स-मिश्रो युक्तो न गृहस्थमिश्रोऽगृहस्थमिश्रः स चासौ निलयश्च वसतिका तस्मिन्नगृहस्थमिश्रनिलये यत्रासंयतजनैः सह सम्पर्को नास्ति तत। असण्णिवाए-असतां पारदारिक चौरपिशूनदृष्टतिर्यकप्रभतीनां निपातो विनाशोऽभावो यत्र तस्मिन्नसन्निपाते । अथवा सतां यतीनां निपात: प्रसर: सन्निकृष्टता सन्निपातः स न विद्यते यत्र सोऽसन्निपातस्तस्मिन् । अथवा असंज्ञिनां पातो संज्ञिपातो वाधारहिते प्रदेशे इत्यर्थः । विसुद्धसंचारे-विशुद्धः संक्लेशरहितो गरतो वा संचरणं संचारः मलोत्सर्गप्रदेशयोग्यः गमनागमना) वा यत्र स विशुद्धसंचारस्तस्मिन् बालवृद्ध रोगिशास्त्राध्ययनयोग्ये । दो--द्वे । तिण्णि-तिस्रः । अज्जाओ-आर्याः संयतिकाः। बहुगीओ वा-वह व्यो वा त्रिशच्चत्वारिंशद्वा। सह-एकत्र। अत्थंति-तिष्ठन्ति वसन्तीति । अगृहस्थमिश्रनिलयेऽसन्निपाते विशुद्धसंचारे द्वे तिस्रो वह्नयो वार्या अन्योन्यानुकूला: परस्पराभिरक्षणाभियुक्ता गतरोषवैरमायाः सलज्जमर्यादकिया अध्ययनपरिवर्तनश्रवणकथनतपोविनयसंयमेषु अनुप्रेक्षासु च तथास्थिता उपयोगयोगयुक्ताश्चाविकार
आदि धर्म, माता-पिता के कुल, अपना यश, और अपने व्रतों के अनुरूप निर्दोष चर्या करती हैं अर्थात् अपने धर्म, कुल आदि के विरुद्ध आचरण नहीं करती हैं।
वे अपने आवास में कैसे रहती हैं ?
गाथार्थ--जो गृहस्थों से मिश्रित न हो, जिसमें चोर आदि का आना-जाना न हो और जो विशुद्ध संचरण के योग्य हो ऐसी वसतिका में दो या तीन या बहुत सी आर्यिकाएँ साथ रहती हैं । ॥१६१॥
आचारवृत्ति-जो गृह में रहते हैं वे गृहस्थ कहलाते हैं। जो अपनी पत्नी और परिग्रह में आसक्त हैं उन गृहस्थों से मिश्र वसतिका नहीं होनी चाहिए। जहाँ पर असंयत जनों का संपर्क नहीं रहता है, जहाँ पर असज्जन-परदारालंपट, चोर, चुगलखोर, दुष्टजन
और तिर्यंचों आदि का रहना नहीं है, अथवा जहाँ पर सत्पुरुष-यतियों की सन्निकटता नहीं है अथवा जहाँ असंज्ञियों अज्ञानियों का, पात-आना-जाना नहीं है अर्थात् जो बाधा रहित प्रदेश है, विशुद्धसंचार–जहाँ पर विशुद्ध-संक्लेशरहित अथवा गुप्त संचार है अर्थात् मल विसर्जन के योग्य गुप्त प्रदेश जहाँ पर विद्यमान है; अथवा जो गमन-आगमन के योग्य अर्थात् जो बाल, वृद्ध और रुग्ण आर्यिकाओं के रहने योग्य है और जो शास्त्रों के स्वाध्याय के लिए योग्य है ऐसा स्थान विशुद्ध संचार कहलाता है। इस प्रकार से गृहस्थों के संपर्क से रहित, दुराचारी जनों के संपर्क से रहित, मुनियों की वसतिका की निकटता से रहित और विशुद्ध
१क ओवा वि अच्छति । २ क असन्निपातः ।
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