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१३२]
[मूलाचारे
तत्थ ण कप्पइ वासो जत्थ इमे णत्थि पंच प्राधारा।
पाइरियउवज्झाया पवत्तथेरा गणधरा य ॥१५॥
तत्थ-तत्र गुरुकुले । ण कप्पइ-न कल्पते न युज्यते। वासो--वसनं वासः स्थानं । जत्थ-यत्र यस्मिन् गुरुकुले । त्थिन संति न विद्यन्ते । इमे-एते। पंच आधारा-आधारभूताः अनुग्रहकुशलाः। के तेऽत आह-आयरिय-आचार्यः। उवज्झाय-उपाध्याय:, आचर्यतेऽस्मादाचार्यः, उपेत्यास्मादधीयते उपाध्यायः। पवत्त—प्रवर्तकः, संघं प्रवर्तयतीति प्रवर्तकः। थविर-स्थविर यस्मात् स्थिराणि आचरणानि भवन्तीति स्थविरः । गणधरा य-गणधराश्च गणं धरतीति गणधरः। यत्र इमे पंचाधारा आचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणधरा न सन्ति तत्र न कल्पते वास इति ॥१५॥
अथ किंलक्षणास्तेऽत आह
सिस्साणुग्गहकुसलो धम्मुवदेसो य संघवट्टवायो।
मज्जादुवदेसोवि य गणपरिरक्खो मुणेयव्वो ॥१५६॥
एतेषामाचार्यादीनामेतानि यथासंख्येन लक्षणानि । सिस्साणुग्गहकुसलो-शिष्यस्य शासितुं योग्यस्यानुग्रह उपादानं तस्मिंस्तस्य वा कुशलो दक्षः शिष्यानुग्रहकुशलो दीक्षादिभिरनुग्राहकः परस्यात्मनश्च । धम्मुवदेसो य-धर्मस्य दशप्रकारस्योपदेशक: कथकः धर्मोपदेशकः । संघववओ-संवप्रवर्तकश्चर्यादिभिरुपकारकः । मज्जादुवदेसोविय-मर्यादायाः स्थितेरुपदेशको मर्यादोपदेशकः । गणपरिरक्खो-गणस्य परिरक्षक:
गाथार्थ-जहाँ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच आधार नहीं हैं वहाँ पर रहना उचित नहीं है ॥१५५।।
प्राचारवृत्ति--जिनसे आचरण ग्रहण किया जाता है उन्हें आचार्य कहते हैं। पास में आकर जिनसे अध्ययन किया जाता है वे उपाध्याय हैं । जो संघ का प्रवर्तन करते हैं वे प्रवर्तक कहलाते हैं । जिनसे आचरण स्थिर होते हैं वे स्थविर कहलाते हैं और जो गण-संघ को धारण करते हैं वे गणधर कहलाते हैं । जिस गुरुकुल में ये पाँच आधारभूत-अनुग्रह करने में कुशल नहीं हैं उस गुरूकुल-संघ में उपर्युक्त मुनि का रहना उचित नहीं है।।
इनके लक्षण क्या क्या हैं ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ--शिष्यों पर अनुग्रह करने में कुशल को आचार्य, धर्म के उपदेशक को उपाध्याय, संघ की प्रवृत्ति करनेवाले को प्रवर्तक, मर्यादा के उपदेशक को स्थविर और गण के रक्षक को गणधर जानना चाहिए ॥१५६॥
आचारवृत्ति-इन आचार्य आदिकों के ये उपर्युक्त लक्षण क्रम से कहे गये हैं। 'शासितं योग्यः शिष्यः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अनुशासन के योग्य हैं वे शिष्य कहलाते हैं। उनके अनुग्रह में अर्थात् उनको ग्रहण करने में जो कुशल होते हैं, दीक्षा आदि के द्वारा पर के ऊपर और स्वयं पर अनुग्रह करनेवाले हैं वे आचार्य कहलाते हैं। दश प्रकार के धर्म को कहनेवाले उपाध्याय कहलाते हैं। चर्या आदि के द्वारा संघ का प्रवर्तन करनेवाले प्रवर्तक होते हैं । मर्यादा का उपदेश देनेवाले अर्थात् व्यवस्था बनानेवाले स्थविर कहलाते हैं और गण के पालन
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