________________
१४]
[मूलाधारे शिक्षादीक्षाद्युपदेशक: ज्ञानतपोऽधिको वा । बालो-नवकः पूर्वापरविवेकरहितो वा। बुड्ढ–वृद्धो जीर्णो जराग्रस्तो दीक्षादिभिरधिको वा। सेह-शैक्ष: शास्त्रपठनोद्य क्तः स्वार्थपर: निर्गुणो दुराराध्यो वा एतेषां द्वन्द्वस्तेषां ग्लानगुरुवालवृद्धशैक्षाणां लक्षणनियोगात् पूर्वापरनिपातो द्रष्टव्यः । जहजोगं यथायोग्यं क्रममनतिलंध्य तदभिप्रायेण वा । कादब्वं-कर्तव्यं करणीयं । सगसत्तीए-स्वशक्त्या स्वशक्तिमनवगा । पयत्तेणप्रयलेनादरेण गच्छे ग्लानगुरुबालवृद्धशैक्षाणां प्रयत्नेन स्वशक्त्या, वैयावृत्यं कर्तव्यमिति ॥१७४॥
अथ तेन परगणे वन्दनादिक्रियाः किमेकाकिना क्रियते नेत्याह
दिवसियरादियपक्खियचाउम्मासियवरिस्सकिरियासु ।
रिसिदेववंदणादिसु सहजोगो होदि कायव्वो ॥१७॥
दिवसिय-दिवसे भवा देवसिकी अपराह्ननिर्वा । रादिय-रात्रौ भवा रात्रिकी पश्चिमरात्रावनुष्ठेया। पक्खिय-पक्षान्ते चतुर्दश्यामावस्यायां पौर्णमास्यां वा पक्षशब्दः प्रवर्तते तस्मिन् भवा पाक्षिकी। चाउम्मासिय-चतुर्थमासेषु भवा चातुर्मासिकी। वारिसिय-वर्षेषु भवा वार्षिकी। एताश्च ताः क्रियाश्च । देवसिकीरात्रिकीपाक्षिकीचातुर्मासिकीवार्षिकीक्रियास्तासु। रिसिदेववंदणाविसु-ऋषयश्च ते देवाश्च ऋषिदेवास्तेषां वन्दनादिर्यासां ता ऋषिदेववन्दनादयस्तासु ऋषिदेववन्दनादिषु क्रियासु। सह–साधं
कहते हैं। ऐसे सघ में ग्लानादि मुनि रहते हैं। व्याधि से पीड़ित अथवा क्षीण शक्तिवाले मुनि ग्लान हैं। शिक्षादीक्षा तथा उपदेश आदि के दाता गुरु हैं अथवा जो तप में या ज्ञान में अधिक हैं वे भी गुरु कहे जाते हैं। नवदीक्षित या पूर्वापर विवेकरहित मुनि बालमुनि कहे जाते हैं। पुराने मुनि या जरा से जर्जरित मुनि अथवा दीक्षा आदि से अधिक वृद्ध हैं, ऐसे ही अपने प्रयोजन को सिद्ध करने में तत्पर हुए स्वार्थतत्पर मुनि, या निर्गुण मुनि अथवा दुराराध्य आदि मुनि शैक्ष संज्ञक हैं। इन सभी प्रकार के मुनियों की, यथायोग्य-क्रम का उल्लंघन न करके अथवा उनके अभिप्राय के अनुसार और अपनी शक्ति को न छिपाकर आदरपूर्वक वैयावृत्ति करना चाहिए । अर्थात् आगन्तुक मुनि पर-संघ में भी सभी प्रकार के मुनियों की वैयावृत्ति करता है।
पर-गण में रहते हुए वह आगन्तुक मुनि वन्दना आदि क्रियाएँ क्या एकाकी करता है ? नहीं, सो ही बताते हैं
गाथार्थ दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक प्रतिक्रमण क्रियाओं में गुरुवन्दना और देववन्दना आदि में साथ ही मिलकर करना चाहिए ॥१७५३:
प्राचारवृत्ति-दिवस में होनेवाली-दिवस के अन्त में अपरामहा काल में की जाने वाली क्रिया देवसिक क्रिया है अर्थात् सायंकाल में किया जानेवाला प्रतिक्रमण देवसिक क्रिया है। रात्रि में होनेवाली अर्थात् पिछली रात्रि में जिसका अनुष्ठान किया जाता है ऐसा रात्रिकप्रतिक्रमण रात्रिक क्रिया है। चतुर्दशी, अमावस्या या पौर्णमासी को पक्ष कहते हैं। इस पक्ष के अन्त में होनेवाली प्रतिक्रमण क्रिया पाक्षिक कहलाती है। चार मास में होनेवाली प्रतिक्रमण क्रिया चातुर्मासिक है और वर्ष में हुई क्रिया वार्षिक अर्थात् वर्ष के अन्त में होनेवाला प्रतिक्रमण वार्षिक क्रिया है । इन प्रतिक्रमण क्रियाओं में ऋषि अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और मुनियों की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org