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सामाचाराधिकारः]
परगण वसता तेन कि स्वेच्छया प्रवर्तितव्यं ? नेत्याह
उन्भामगादिगमणे उत्तरजोगे सकज्जप्रारंभे।
इच्छाकारणिजुत्तो आपुच्छा होइ कायव्वा ॥१७३॥
उन्भामगादिगमणे-उभ्रामको ग्राम: चर्या वा स आदिर्येषां ते उद्भ्रामकादयस्तेषामुभ्रामकादीनां गमनमनुष्ठानं तस्मिन् ग्रामभिक्षाव्युत्सगांदिके। उत्तरजोगे-उत्तरः प्रकृष्टः योग: वृक्षमूलादिस्तस्मिन्नुतरयोगे। सकज्जआरम्भे-स्वस्यात्मनः कार्य प्रयोजनं तस्यारम्भ आदिक्रिया तस्मिन स्वकार्यारम्भे । इच्छाकारणिजुत्तो-इच्छाकारेण कर्तुमभिप्रायेण नियुक्त उद्युक्तः स्थितस्तेन इच्छाका रनियुक्तेन, अथवा आपृच्छाया विशेषणं इच्छाकारनियुक्ता प्रणामादिविनयनियुक्ता । आपुच्छा-आपृच्छा सर्वेषां प्रश्नः । होदि-भवति । कादव्वा-कर्तव्या कार्या। तेन स्वगणे वसता यथा उद्भ्रामकादिगमने उत्तरयोगे स्वकार्यारम्भे इच्छाकारनियुक्तेनापृच्छा भवति कर्तव्या तथा परगणे वसतापीत्यर्थः ॥१७३।।
तथा वैयावृत्यमपीत्याह---
गच्छे वेज्जावच्चं गिलाणगरु बालबडढसेहाणं।
जहजोगं कादव्वं सगसत्तीए पयत्तेण ॥१७४॥ गच्छे-ऋषिसमुदाये चातुर्वर्ण्यश्रमणसंधे वा सप्तपुरुषकस्त्रिपुरुषको वा तस्मिन् । वेजावचंवैयावृत्त्यं कायिकव्यापाराहारादिभिरुपग्रहणं । गिलाण-ग्लान: व्याध्याद्युपपीडितः, क्षीणशक्तिकः । गुरु
आगन्तुक मुनि पर-गण में रहते हुए क्या स्वेच्छा प्रवृत्ति करता है ? नहीं, इसी बात को कहते हैं
गाथार्थ-चर्या आदि के लिए गमन करने में, वृक्षमूल आदि योग करने में और अपने कार्य के प्रारम्भ में इच्छाकार पूर्वक प्रश्न करना होता है ।।१७३॥
आचारवृत्ति-उद्भ्रामक-ग्राम अथवा चर्या, उसके लिए गमन उद्भ्रामक-गमन है। आदि शब्द से मलमूत्र विसर्जन आदि को लिया है। अर्थात् किसी ग्राम में जाते समय या आहार के लिए गमन करने में, मलमूत्रादि त्याग के लिए जाते समय, उत्तर-प्रकृष्ट योग अर्थात् वृक्षमूल, आतापन आदि योगों को धारण करते समय, अपने किसी भी कार्य के प्रारम्भ में और भी किन्हीं क्रियाओं के आदि में आचार्यों की इच्छा के अनुसार पूछकर कार्य करना। अथवा प्रणाम आदि विनयपूर्वक सभी विषय में गुरु से पूछकर कार्य करना होता है। तात्पर्य यह है आगन्तुक मुनि पहले जैसे अपने संघ में चर्या आदि कार्यों में विनयपूर्वक अपने आचार्य से पूछकर कार्य करते थे, उसी प्रकार से उसे पर-संघ में यहाँ पर स्थित आचार्य के अभिप्रायानुसार उनसे आज्ञा लेकर ही इन सब क्रियाओं को करना चाहिए।
उसी प्रकार पर-गण में वैयावृत्ति भी करना चाहिए
गाथार्थ-पर-गण में क्षीणशक्तिक, गुरु, बाल, वृद्ध और शैक्ष मुनियों की अपनी शक्ति के अनुसार प्रयत्नपूर्वक यथायोग्य वैयावृत्ति करना चाहिए ॥१७४.
प्राचारवृत्ति-ऋषियों के समूह को अथवा चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ को गच्छ कहते हैं। अथवा सात या तीन पुरुषों की परम्परा को अर्थात् सात या तीन पीढ़ियों के मुनियों को गच्छ
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