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सामाचाराधिकारः]
[११ संध्यागर्जनविद्यु दुत्पादादिसमयविवर्जनं कालशुद्धिः । क्रोधमानमायालोभादिविवर्जनं भावशुद्धिः परिणामशुद्धिः, क्षेत्रगताशुद्ध्यपनयनं क्षेत्रशुद्धिः, शरीरादिशोधनं द्रव्यशुद्धिः । विणयउवयारजुत्तेण-विनयश्चोपचारश्च विनय एवोपचारस्ताभ्यां तेन वा युक्तः समन्वितो विनयोपचारयुक्तस्तेन । अज्मेयव्वं-अध्येतव्यं पठितव्यं । पयत्तणप्रयत्नेन । द्रव्यक्षेत्रकालभावान् सम्यक् प्रतिलेख्य तेन शिष्येण विनयोपचारयुक्तेन प्रयत्नेनाध्येतव्यं नोपेक्षणीयमिति ॥१७॥
यदि पुनः
दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तत्थसिक्खलोहेण ।
असमाहिमसज्झायं कलहं वाहिं वियोगं च ॥१७१॥
दव्वादिवदिक्कमणं-द्रव्यमादिर्येषां ते द्रव्यादयस्तेषां व्यतिक्रमणमतिक्रमोऽविनयो द्रव्यादिव्यतिक्रमणं द्रव्यक्षेत्रकालभावैः शास्त्रस्य परिभवं । करेदि-करोति कुर्यात् । सुत्तत्थसिक्खलोहेण-सूत्रं चार्थश्च सूत्राथों तयोः शिक्षात्मसंस्कारोऽवबोध आगमनं तस्या लोभ आसक्तिस्तेन सूत्रार्थशिक्षालोभेन । असमाहिअसमाधिः मनसोऽसमाधानं सम्यक्त्वादिविराधनं । असमायं-अस्वाध्यायः शास्त्रादीनामलाभः शरीरादेविधातो वा। कलह-कलह आचार्यशिष्ययोः परस्परं द्वन्द्वः, अन्यैर्वा । वाहि-व्याधिः ज्वरश्वासकासभगंदरादिः। विओगं च-वियोगश्च । च समुच्चयार्थः । आचार्य शिष्ययोरेकस्मिन्ननवस्थानं। यदि पुनद्रव्या
कालोभेन।
रबन्दः, साध्याय
प्रमाण भूमिभाग में नहीं होना । सन्ध्याकाल, मेघगर्जन काल, विद्युत्पात और उत्पात आदि काल से रहित समय का होना कालशुद्धि है । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावों का त्याग करना भावशुद्धि है । अर्थात् इस प्रकार से क्षेत्र में होनेवाली अशुद्धि को दूर करना उस क्षेत्र से अतिरिक्त क्षेत्र का होना क्षेत्रशुद्धि है। शरीर आदि का शोधन करना अर्थात् शरीर में ज्वर आदि या शरीर से पीव खून आदि के बहते समय के अतिरिक्त स्वस्थ शरीर का होना द्रव्यशुद्धि है, संधि काल आदि के अतिरिक्त काल का होना कालशुद्धि है और कषायादि रहित परिणाम होना ही भावशुद्धि है। प्रयत्नपूर्वक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को सम्यक् प्रकार से शोधन करके विनय और औपचारिक क्रियाओं से युक्त होकर उस मुनि को गुरु के मुख से सूत्रों का अध्ययन करना चाहिए।
यदि पुनः ऐसा नहीं हो तो क्या होगा?
गाथार्थ-यदि सूत्र के अर्थ की शिक्षा के लोभ से द्रव्य, क्षेत्र आदि का उल्लंघन करता है तो वह असमाधि, अस्वाध्याय, कलह, रोग और वियोग को प्राप्त करता है ॥१७१॥
प्राचारवृत्ति-यदि मुनि सूत्र और उसके निमित्त से होनेवाला आत्मसंस्कार रूप ज्ञान, उसके लोभ से-आसक्ति से पूर्वोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि को उल्लंघन करके पढ़ता है तो मन में असमाधानी रूप असमाधि को अथवा सम्यक्त्व आदि की विराधनारूप असमाधि को प्राप्त करता है, शास्त्रादि का अलाभ अथवा शरीर आदि के विधात रूप से अस्वाध्याय को प्राप्त करता है । या आचार्य और शिष्य में परस्पर में कलह हो जाती है अथवा अन्य के साथ कलह हो जाती है । अथवा ज्वर, श्वास, खाँसी, भगंदर आदि रोगों का आक्रमण हो जाता है या आचार्य और शिष्य के एक जगह नहीं रह सकने रूप वियोग हो जाता है।
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